रानी गाइदिन्ल्यू: नागालैंड की वीरांगना और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा
प्रस्तावना: एक विस्मृत वीरांगना की गाथा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक वीरांगनाओं के नाम दर्ज हैं, किंतु पूर्वोत्तर भारत की नागा जनजाति की इस योद्धा का नाम बहुत कम लोग जानते हैं। रानी गाइदिन्ल्यू ने मात्र 13 वर्ष की आयु से ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का बिगुल फूंक दिया था।
उनका जीवन चार प्रमुख आयामों – क्रांतिकारी संघर्ष, धार्मिक नेतृत्व, सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अनूठा संगम है।
प्रथम अध्याय: प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि (1915-1927)
जन्म और बाल्यावस्था
26 जनवरी 1915 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के मणिपुर प्रांत (वर्तमान में नागालैंड के तामेंगलोंग जिले) के नुंगकाओ गाँव में जन्मी गाइदिन्ल्यू रोंगमेई नागा जनजाति के जेलियांग्रोंग समुदाय से थीं।
उनके पिता लोथोनाओ पाउलीन और माता कातोनुओ सामान्य किसान थे। उनका परिवार हेराका (पूर्वजों की पूजा पर आधारित नागा धार्मिक परंपरा) का पालन करता था।
सामाजिक-राजनीतिक परिवेश
1920 का दशक नागा क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष का काल था। नागाओं पर लगाया गया कर (हाउस टैक्स), बेगार प्रथा और ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव ने जनजातीय समाज को विखंडित कर दिया था।
गाइदिन्ल्यू के बचपन में ही उनके गाँव में अंग्रेजों द्वारा किए गए अत्याचारों की कहानियाँ सुनने को मिलती थीं।
शिक्षा और प्रारंभिक प्रभाव
उस समय नागा समाज में लड़कियों की औपचारिक शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं था। गाइदिन्ल्यू ने जनजातीय लोककथाओं, पारंपरिक गीतों और हेराका धार्मिक मान्यताओं के माध्यम से ही शिक्षा प्राप्त की।
1927 में जब वह मात्र 12 वर्ष की थीं, तभी उनकी मुलाकात अपने चचेरे भाई हापौ जादोनांग से हुई, जो उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ।
द्वितीय अध्याय: जादोनांग का प्रभाव और हेराका आंदोलन (1927-1931)
जादोनांग: एक क्रांतिकारी संत
हापौ जादोनांग ने 1920 के दशक में हेराका आंदोलन की शुरुआत की थी। वे नागाओं को “पूर्वजों के धर्म” में लौटने का आह्वान करते थे।
उनका दर्शन था कि नागा लोगों को अपनी संस्कृति और स्वायत्तता बचाने के लिए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित होना चाहिए। गाइदिन्ल्यू जादोनांग की शिष्या बन गईं और उनके साथ पूरे नागा क्षेत्र में भ्रमण करने लगीं।
हेराका आंदोलन का त्रिस्तरीय उद्देश्य
1. धार्मिक सुधार: ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को रोकना
2. राजनीतिक स्वतंत्रता: ब्रिटिश शासन से मुक्ति
3. सामाजिक एकता: विभिन्न नागा जनजातियों को संगठित करना
गुरिल्ला युद्ध की तैयारी
1929 तक जादोनांग ने 5000 से अधिक नागा युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। गाइदिन्ल्यू ने महिला स्वयंसेवक दलों का गठन किया जो हथियार बनाने, खाद्य संग्रहण और गुप्त संदेशवाहक का कार्य करती थीं।
उन्होंने पारंपरिक नागा हथियारों जैसे डाओ (तलवार), भाले और धनुष-बाण का आधुनिकीकरण किया।
जादोनांग की शहादत (29 अगस्त 1931)
ब्रिटिश सरकार ने जादोनांग को “राजद्रोह” के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। 29 अगस्त 1931 को इम्फाल जेल में उन्हें फाँसी दे दी गई। इस घटना ने 16 वर्षीय गाइदिन्ल्यू को पूर्णरूप से क्रांति के मार्ग पर अग्रसर कर दिया।

तृतीय अध्याय: स्वतंत्रता संग्राम में योगदान (1931-1932)
नेतृत्व की बागडोर संभालना
जादोनांग की मृत्यु के बाद गाइदिन्ल्यू ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। उन्होंने “गाइदिन्ल्यू बैंड” नामक एक सशस्त्र दल का गठन किया जिसमें 2000 से अधिक युवा शामिल थे। उनकी रणनीति में शामिल थे:
– ब्रिटिश प्रशासनिक केंद्रों पर हमले
– कर संग्रह में बाधा उत्पन्न करना
– गुप्त सूचना तंत्र विकसित करना
जवाहरलाल नेहरू से संपर्क
1932 में गाइदिन्ल्यू ने असम कांग्रेस के माध्यम से पंडित नेहरू तक अपना संदेश पहुँचाया। नेहरू ने उन्हें “रानी” की उपाधि देते हुए “भारत की जंगल की रानी” कहा।
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “यह अद्भुत बालिका पूर्वोत्तर के जंगलों में स्वतंत्रता की मशाल लेकर घूम रही है।”
ब्रिटिश दमन और गिरफ्तारी
अक्टूबर 1932 में ब्रिटिश सेना ने पूर्ण पैमाने पर सैन्य अभियान चलाया। 17 अक्टूबर 1932 को पुलिन बेसी गाँव में एक संघर्ष के बाद गाइदिन्ल्यू को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
चतुर्थ अध्याय: कारावास का काल (1932-1947)
विभिन्न कारागारों में यातना
गाइदिन्ल्यू को पहले आइजोल जेल, फिर गुवाहाटी और अंततः शिलांग जेल में रखा गया। ब्रिटिश अधिकारी उन्हें “राजनीतिक कैदी” न मानकर “खतरनाक अपराधी” मानते थे। उन्हें अंधेरी कोठरी में रखा जाता था और शारीरिक यातनाएँ दी जाती थीं।
आध्यात्मिक विकास
कारावास के दौरान गाइदिन्ल्यू ने हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया। वे वैष्णव संतों के संपर्क में आईं और भगवान विष्णु की उपासना करने लगीं। उन्होंने हिंदी और असमिया भाषा सीखी तथा गीता का गहन अध्ययन किया।
स्वतंत्रता और पुनर्वास (1947)
15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री नेहरू के विशेष हस्तक्षेप से गाइदिन्ल्यू को रिहा किया गया। नेहरू ने उन्हें दिल्ली आमंत्रित किया और संसद में सम्मानित किया। उनके लिए नागालैंड में एक घर बनवाया गया और पेंशन की व्यवस्था की गई।
पंचम अध्याय: स्वतंत्र भारत में योगदान (1947-1993)
हेराका धर्म का पुनरुद्धार
गाइदिन्ल्यू ने 1950 के दशक में हेराका धर्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। उन्होंने इसमें वैष्णव भक्ति के तत्व जोड़कर “हेराका-हरिचाओ” नामक नया संप्रदाय स्थापित किया। उनके अनुयायी आज भी नागालैंड और मणिपुर में सक्रिय हैं।
राजनीतिक सक्रियता
1960 में उन्होंने नागा नेशनल काउंसिल (NNC) के साथ मिलकर काम किया, किंतु बाद में उन्होंने भारत सरकार के साथ सहयोग का मार्ग चुना। 1966 में उन्होंने “रानी गाइदिन्ल्यू ब्रिगेड” का गठन किया जिसने नक्सलवाद के विरुद्ध अभियान चलाया।
सामाजिक कार्य
– महिला शिक्षा के लिए स्कूल स्थापित किए
– शराबबंदी आंदोलन चलाया
– नागा परंपरागत वस्त्रों और हस्तशिल्प को बढ़ावा दिया
सम्मान और पुरस्कार
1982 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। नागालैंड सरकार ने उनके नाम पर युवा विकास योजनाएँ शुरू कीं। 1996 में भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया।
भारत सरकार ने रानी गाइदिन्ल्यू के योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें कई सम्मान दिए:
पद्म भूषण (1972) – समाज सेवा के लिए
ताम्र पत्र स्वतंत्रता सेनानी सम्मान (1972)
1991 में मरणोपरांत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान
2015 में उनकी जन्म शताब्दी पर 5 रुपये और 100 रुपये के सिक्के जारी किए गए
भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया
उनके नाम पर स्मारक और योजनाएँ
मणिपुर और नागालैंड में कई शिक्षण संस्थानों और सड़कों का नामकरण रानी गाइदिन्ल्यू के नाम पर किया गया।
रानी गाइदिन्ल्यू संग्रहालय और शोध केंद्र की स्थापना।
भारत सरकार ने उनके विचारों और कार्यों के प्रचार-प्रसार के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं।
षष्ठ अध्याय: व्यक्तित्व और विरासत
बहुआयामी व्यक्तित्व
– क्रांतिकारी: 13 वर्ष की आयु से ही सशस्त्र संघर्ष
– धार्मिक सुधारक: हेराका-हरिचाओ संप्रदाय की स्थापना
– सामाजिक कार्यकर्ता: महिला सशक्तिकरण और शिक्षा
– सांस्कृतिक चिंतक: नागा परंपराओं का संरक्षण
रानी गाइदिन्ल्यू: मृत्यु और स्मृति
17 फरवरी 1993 को 78 वर्ष की आयु में लोंगकाओ गाँव में उनका निधन हो गया। आज नागालैंड में:
– रानी गाइदिन्ल्यू स्मारक संग्रहालय
– रानी गाइदिन्ल्यू महिला मंडल
– वार्षिक शहादत दिवस समारोह
ऐतिहासिक मूल्यांकन
इतिहासकार डॉ. गंगमुमेई काबुई के अनुसार, “रानी गाइदिन्ल्यू ने नागा अस्मिता के तीन स्तंभों – राजनीतिक स्वायत्तता, धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित किया।”
उपसंहार: एक अमर विरासत
रानी गाइदिन्ल्यू का जीवन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के उस पहलू को उजागर करता है जो अक्सर उपेक्षित रह जाता है। उन्होंने साबित किया कि सशस्त्र संघर्ष और आध्यात्मिक सुधार एक साथ किए जा सकते हैं।
आज जब नागालैंड शांति और विकास के पथ पर अग्रसर है, रानी गाइदिन्ल्यू की स्मृति हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता।
रानी गाइदिन्ल्यू की जीवन यात्रा न केवल नागाओं बल्कि समस्त भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।
निष्कर्ष: रानी गाइदिन्ल्यू का जीवन और उनकी अमर विरासत
रानी गाइदिन्ल्यू का जीवन संघर्ष, निडरता और अपने लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए त्याग की कहानी है। वे न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ीं, बल्कि नागा समाज के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण की भी प्रतीक बनीं।
बचपन से ही उनमें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी, और जादोनांग के नेतृत्व में उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपनी यात्रा शुरू की।
जब जादोनांग को फांसी दे दी गई, तो उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि आंदोलन की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध और स्थानीय समुदायों के संगठन के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा तैयार किया।
उनका यह संघर्ष 1932 में उनकी गिरफ्तारी के बाद भी समाप्त नहीं हुआ। 14 साल तक जेल में अमानवीय यातनाएँ सहने के बावजूद उन्होंने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया।
भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें जेल से रिहा करवाया, तो उन्होंने उन्हें “रानी” की उपाधि दी, जो उनके संघर्ष और नेतृत्व के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
रिहाई के बाद भी उन्होंने नागा समाज की उन्नति, महिला सशक्तिकरण और भारतीय एकता के लिए काम किया। उन्होंने नागालैंड के अलगाववादी आंदोलनों का विरोध किया और हमेशा भारत की अखंडता की वकालत की।
रानी गाइदिन्ल्यू का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चे साहस, संकल्प और निष्ठा से कोई भी बाधा पार की जा सकती है। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आध्यात्मिक सुधारक भी थीं, जिन्होंने अपने समाज को आत्मनिर्भरता, एकता और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की सीख दी।
भारत सरकार ने उनके योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें पद्म भूषण सहित कई सम्मान प्रदान किए। उनके नाम पर सिक्के, डाक टिकट, संग्रहालय और शैक्षणिक संस्थान बनाए गए, जिससे उनकी स्मृति आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनी रहे।
17 फरवरी 1993 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। वे उन अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिनका नाम मुख्यधारा के इतिहास में भले ही अधिक न लिया जाता हो, लेकिन उनका योगदान भारत की आजादी और एकता के लिए अतुलनीय है।
रानी गाइदिन्ल्यू की कहानी हमें संघर्ष, देशभक्ति और अपने मूल्यों के लिए अडिग रहने की प्रेरणा देती है। वे आज भी भारत की अमर वीरांगना के रूप में याद की जाती हैं, और उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची आजादी केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के रूप में भी होनी चाहिए।