कर्नाटक के तटों पर ओलिव रिडले कछुए हर साल क्यों आते हैं अंडे देने?

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क्या आप जानते हैं कि कर्नाटक के तटों पर हर साल हजारों ओलिव रिडले कछुए क्यों अंडे देने आते हैं?

कर्नाटक के समुद्री तटों पर प्रकृति का चमत्कार: उत्तर कन्नड़ में ओलिव रिडले कछुओं की वापसी

हर साल सैकड़ों छोटी-छोटी जानें, समंदर से निकलकर रेत पर एक नए जीवन की शुरुआत करती हैं — एक अद्भुत चक्र जो हजारों वर्षों से चलता आ रहा है।

प्रकृति की एक अद्भुत कहानी

दिसंबर की एक शांत रात है। चंद्रमा की रोशनी में चमकती रेत, लहरों की धीमी-धीमी आवाज़, और अचानक – रेत में से एक छाया सरकती है। ये कोई आम दृश्य नहीं। यह है ओलिव रिडले समुद्री कछुआ, जो हजारों किलोमीटर की यात्रा कर कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के तट पर लौट आया है — अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य पूरा करने, यानी अंडे देने के लिए।

ये कोई फिल्मी कल्पना नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य की वास्तविकता है, जहां हर साल सैकड़ों कछुए वापस लौटते हैं, जीवन का चक्र चलाने।

ओलिव रिडले समुद्री कछुआ: एक छोटा पर अद्भुत जीव

ओलिव रिडले (Olive Ridley) समुद्री कछुए दुनिया के सबसे छोटे और सबसे अधिक पाए जाने वाले समुद्री कछुओं में से एक हैं। इनका नाम इनके जैतून जैसी हरे रंग की खोल (shell) की वजह से पड़ा है।

मुख्य विशेषताएँ:

वैज्ञानिक नाम: Lepidochelys olivacea

लंबाई: 60–70 सेंटीमीटर

वजन: 35–45 किलोग्राम

आयु: लगभग 50 वर्ष

भोजन: जेलीफिश, क्रस्टेशियन, मोलस्क, और समुद्री पौधे

इनकी सबसे अनोखी बात है इनका Arribada यानी सामूहिक अंडे देने की प्रक्रिया।

उत्तर कन्नड़: ओलिव रिडले का सुरक्षित घर

उत्तर कन्नड़, कर्नाटक का एक खूबसूरत समुद्र तटीय जिला है जो पश्चिमी घाट की हरियाली और अरब सागर की लहरों के संगम का प्रतीक है। यहीं पर स्थित हैं वो तट जहां हर साल कछुए अंडे देने के लिए लौटते हैं।

प्रमुख तटीय इलाके:

गोकर्ण

कुमटा

होनावर

मुर्वंते

बीच के छोटे गांव जैसे – बेलके, बड़कण

यहां के शांत, साफ और कम प्रदूषित समुद्री तट कछुओं के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करते हैं।

Arribada: जीवन का उत्सव

Arribada एक स्पेनिश शब्द है, जिसका अर्थ है ‘आगमन‘। ओलिव रिडले कछुए सामूहिक रूप से एक ही समय में तट पर आते हैं और हजारों अंडे रेत में दबा जाते हैं।

ये प्रक्रिया कैसे होती है?

1. वापसी: मादा कछुए हर साल उसी समुद्र तट पर लौटती हैं, जहां वे जन्मी थीं।

2. रेत में खुदाई: वे अपने पिछले पैरों से रेत में एक गड्ढा खोदती हैं।

3. अंडों का जमाव: एक बार में 80–120 अंडे देती हैं।

4. रेत से ढकना: अंडों को ढककर, वह वापस समुद्र में लौट जाती हैं।

5. इन्क्युबेशन: 45–60 दिन बाद छोटे-छोटे बच्चों का जन्म होता है।

ये दृश्य इतना अद्भुत होता है कि देखने वाले की आंखें भर आती हैं।

समुद्री कछुओं का जीवन चक्र: एक संघर्षपूर्ण यात्रा

अंडे देने के बाद मादा कछुए तो लौट जाती हैं, लेकिन बच्चों के सामने एक खतरनाक यात्रा होती है।

संघर्ष की शुरुआत:

शिकार: अंडों को जानवर, पक्षी और इंसान तक नुकसान पहुंचाते हैं।

हैचिंग के बाद खतरे: जब बच्चे रेत से निकलते हैं, तो समुद्र तक पहुंचने से पहले ही कई मारे जाते हैं।

समुद्र में खतरे: प्लास्टिक प्रदूषण, मछली पकड़ने के जाल, और जहाजों से भी खतरा बना रहता है।

कहा जाता है कि हर 1000 में से सिर्फ 1 ही कछुआ वयस्क अवस्था तक पहुंच पाता है।

कर्नाटक के तटों पर ओलिव रिडले कछुए हर साल क्यों आते हैं अंडे देने?
कर्नाटक के तटों पर ओलिव रिडले कछुए हर साल क्यों आते हैं अंडे देने?

मानव स्पर्श: संरक्षण की जरूरत

“प्रकृति की रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है, क्योंकि कछुए हमारे बोल नहीं सकते।”

स्थानीय लोग और संरक्षण:

उत्तर कन्नड़ के कई गांवों में अब समुद्री कछुओं के संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ी है। स्थानीय मछुआरे अब अंडों को संरक्षित करने में सहयोग करते हैं।

NGO जैसे – Sahyadri Nisarga Mitra एवं Karnataka Forest Department इस कार्य में शामिल हैं।

स्वयंसेवक रात के समय गश्त लगाते हैं, अंडों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर रेत में पुनः दबाते हैं।

बच्चों के लिए स्कूलों में समुद्री जीवन से संबंधित कार्यक्रम होते हैं।

चुनौतियाँ: जो अब भी बाकी हैं

1. प्रदूषण: समुद्र में प्लास्टिक की भरमार है, जो कछुओं के लिए जानलेवा है।

2. प्रकाश प्रदूषण: समुद्र तट के पास की रोशनी नवजात कछुओं को भ्रमित कर देती है।

3. निर्माण कार्य: होटल और रिसॉर्ट के निर्माण से तटों का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ता है।

4. पर्यटन: असंवेदनशील टूरिज़्म भी तटीय जीवन को नुकसान पहुंचाता है।

सरकार की भूमिका और प्रयास

कर्नाटक सरकार और भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने मिलकर कई प्रयास किए हैं:

‘Marine Turtle Conservation Programme’ के अंतर्गत रेत पर अंडों की निगरानी।

Eco-sensitive zones की घोषणा।

स्थानीय मछुआरों को आर्थिक सहायता और पर्यावरण शिक्षा।

लोक कहानियाँ और संस्कृति में कछुओं का स्थान

समुद्री कछुए भारतीय संस्कृति में भी स्थान रखते हैं। हमारे पौराणिक ग्रंथों में कूर्म अवतार (भगवान विष्णु का अवतार) कछुए के रूप में ही वर्णित है। तटीय गांवों में कछुओं को शुभ और जीवन का रक्षक माना जाता है।

एक स्थानीय मछुआरे की कहानी

गोकर्ण के पास एक गांव में रहने वाले रामप्पा नाइक पिछले 15 वर्षों से कछुओं की रक्षा कर रहे हैं। वे कहते हैं:

“पहले तो हम कछुओं को मछली समझकर पकड़ लेते थे। पर जब समझ आया कि ये कितने अद्भुत जीव हैं, तब से मैंने हर साल 100 से ज्यादा घोंसलों को सुरक्षित किया है।”

उनका अनुभव बताता है कि स्थानीय लोगों की भागीदारी के बिना संरक्षण संभव नहीं।

भविष्य की दिशा: हम क्या कर सकते हैं?

1. जागरूकता फैलाएं: बच्चों और युवाओं को समुद्री जीवन की अहमियत बताएं।

2. प्लास्टिक का प्रयोग कम करें: समुद्र को स्वच्छ बनाएं।

3. इको-टूरिज्म को बढ़ावा दें: जिम्मेदार पर्यटन अपनाएं।

4. स्थानीय संरक्षण प्रयासों में भाग लें: स्वयंसेवक बनें।

समुद्री कछुए और पर्यावरणीय संतुलन

हम अक्सर सोचते हैं कि एक छोटा-सा कछुआ समुद्री पारिस्थितिकी में क्या भूमिका निभा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि ओलिव रिडले जैसे समुद्री कछुए हमारे समुद्री तंत्र के लिए काँटा पत्थर (keystone species) की तरह हैं।

वे कैसे मदद करते हैं?

1. समुद्री घास का नियंत्रण: कछुए समुद्री घास चरते हैं जिससे इसका संतुलन बना रहता है।

2. जेलीफ़िश की संख्या नियंत्रित करते हैं: ये उनका प्रमुख आहार है — जिससे मछलियों के अंडों को बचाया जा सकता है।

3. पोषण चक्र का हिस्सा: अंडों से जन्मे बच्चे कई जानवरों का भोजन बनते हैं, जिससे जीवन चक्र जारी रहता है।

4. रेत की उर्वरता बढ़ाते हैं: जो अंडे नहीं फूटते, वे रेत में सड़कर उर्वरक का काम करते हैं।

वैज्ञानिक शोध और GPS टैगिंग

आज वैज्ञानिक ओलिव रिडले की गतिविधियों को समझने के लिए हाई-टेक तरीकों का सहारा ले रहे हैं:

GPS टैगिंग: मादा कछुओं के खोल पर GPS डिवाइस लगाकर उनकी यात्रा का अध्ययन किया जाता है।

ड्रोन सर्वे: समुद्र तटों पर अंडों की संख्या और गतिविधियों पर निगरानी के लिए।

DNA स्टडी: यह जानने के लिए कि कौन-से समुद्र तट से कौन-सी कछुए की पीढ़ी जुड़ी है।

ये सभी प्रयास कछुओं की सुरक्षा के लिए नीतियाँ बनाने में सहायक हैं।

बच्चों और युवाओं की भूमिका: अगली पीढ़ी के रक्षक

कई स्कूलों और कॉलेजों में अब ‘Wildlife Clubs’ बनाए जा रहे हैं जहाँ छात्र स्वयं इन संरक्षण परियोजनाओं में भाग लेते हैं। उत्तर कन्नड़ के कई विद्यालयों में हर साल ‘Turtle Walks’ और ‘Beach Clean-Up Drives’ आयोजित होते हैं।

कुछ लोकप्रिय अभियान:

“Adopt a Nest” योजना: जिसमें कोई भी व्यक्ति एक कछुए के घोंसले को गोद लेकर उसके संरक्षण में सहयोग कर सकता है।

Turtle Festival: कुमटा और गोकर्ण में हर साल फरवरी-मार्च में मनाया जाता है — इसमें स्थानीय कला, गीत-संगीत और संरक्षण का मिलाजुला रूप देखने को मिलता है।

एक संवेदनशील पर्यटन की ओर

पर्यटन को कछुओं के लिए खतरा नहीं, सहयोगी बनाया जा सकता है — बशर्ते यह उत्तरदायी (responsible tourism) हो।

कैसे?

1. होटल्स और रेस्टोरेंट्स को समुद्री रोशनी को कम करना चाहिए।

2. रात्रि में समुद्र तटों पर गतिविधि सीमित होनी चाहिए।

3. पर्यटकों को अंडों के आसपास ना जाने की सलाह।

4. ‘Eco Guides’ को प्रशिक्षित करना जो टूरिस्ट को जानकारी दें और सुरक्षा सुनिश्चित करें।

प्रेरणादायक पहल: महिलाएं आगे

उत्तर कन्नड़ में कई स्वयं सहायता समूहों की महिलाएं अब Turtle Guardians बन रही हैं। वे न सिर्फ अंडों की निगरानी करती हैं, बल्कि स्थानीय हस्तशिल्प बनाकर आजीविका भी चला रही हैं।

जया बेनकुरे, बेलके गांव की एक महिला बताती हैं:

“जब मैंने पहली बार एक कछुए को अंडे देते देखा, तो मेरी आंखें नम हो गईं। तब से मैंने तय कर लिया, ये मेरी ज़िम्मेदारी है।”

विश्व मंच पर भारत और कर्नाटक की पहचान

भारत ने Indian Wildlife Protection Act, 1972 के तहत समुद्री कछुओं को संरक्षण दिया है। साथ ही:

भारत CITES और Convention on Migratory Species का सदस्य है।

कर्नाटक को “Marine Biodiversity Hotspot” माना गया है।

UNDP, WWF जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर भी संरक्षण के प्रयास हो रहे हैं।

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कर्नाटक के तटों पर ओलिव रिडले कछुए हर साल क्यों आते हैं अंडे देने?
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में समुद्री कछुए

कई बार तटीय क्षेत्रों में लोकनाट्य, यक्षगान और लोक गीतों में समुद्र, मछुआरों और कछुओं के रिश्ते को दिखाया जाता है।

एक लोकप्रिय यक्षगान की पंक्ति है:

“रेतीली रातों में जन्मा जीवन, लहरों की लोरी सुनता बच्चा बन, समुद्र की गोद में सो जाता है।”

क्या होगा अगर ये कछुए लुप्त हो जाएं?

अगर हम ओलिव रिडले कछुओं को नहीं बचा पाए, तो:

समुद्र के खाद्य चक्र में असंतुलन होगा।

जेलीफिश की संख्या अत्यधिक बढ़ सकती है।

समुद्री घास और कोरल रीफ प्रभावित होंगे।

तटीय जैव विविधता कमज़ोर हो जाएगी।

यह सिर्फ एक प्रजाति का नुकसान नहीं, समुद्री पारिस्थितिकी का पतन होगा।

हम सब की भागीदारी ज़रूरी है

आम नागरिक क्या कर सकते हैं?

समुद्र तट पर प्लास्टिक न छोड़ें।

कछुओं या उनके अंडों को छूने की कोशिश न करें।

कछुए देखे तो निकटतम वन विभाग को सूचित करें।

सोशल मीडिया पर जागरूकता फैलाएं।

शिक्षकों की भूमिका

छात्रों को प्रकृति संरक्षण के लिए प्रेरित करें।

वन्य जीवन से संबंधित गतिविधियों को पाठ्यक्रम में शामिल करें।

एक भावनात्मक अपील

कभी समुद्र की ओर जाकर सिर्फ लहरों को न देखिए, ज़रा रेत की नमी को महसूस करिए — शायद वहां कोई जीवन आपकी संवेदनशीलता की राह तक रहा हो।

कछुए तो कुछ नहीं मांगते — बस थोड़ी सी जगह, थोड़ी सी शांति और हमारी समझदारी। क्या हम उन्हें ये नहीं दे सकते?

“यदि हम आज उनकी रक्षा करेंगे, तो कल वे समुद्र के किसी कोने से लौटकर हमें जीवन की कहानी सुनाने फिर आएंगे…”

निष्कर्ष: एक नई सुबह की उम्मीद

हर साल जब ओलिव रिडले कछुए उत्तर कन्नड़ के तटों पर लौटते हैं, तो ये केवल अंडे देने नहीं आते, बल्कि हमें एक संदेश देने आते हैं — प्रकृति, जीवन और पुनर्जन्म का संदेश।

ये एक चमत्कार है, जिसे देखने के लिए किसी टिकट की जरूरत नहीं — बस एक संवेदनशील हृदय की जरूरत है। अगर हम सभी थोड़ा सा भी योगदान दें, तो इन मासूम जीवों का जीवन और हमारी धरती दोनों बेहतर हो सकते हैं।

“जब अगली बार आप समुद्र किनारे जाएं, तो बस एक नजर रेत पर ज़रूर डालिए — शायद वहाँ जीवन ने अभी-अभी जन्म लिया हो।”  ओलिव रिडले कछुए


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