अंबिका धुरंधर: वो पहली भारतीय महिला कलाकार जिनकी चित्रों ने कला की परिभाषा बदल दी
परिचय: शुरुआत उस युग में, जब महिलाओं की आवाज़ खो जाती थी
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Toggle20वीं सदी का शुरुआती दौर भारत के लिए बदलाव का समय था। एक ओर आज़ादी की लड़ाई तेज़ हो रही थी, दूसरी ओर समाज में महिलाओं की स्थिति बेहद संकुचित थी।
ऐसे समय में एक लड़की, अंबिका धुरंधर, मुंबई के धुरंधर परिवार में जन्मी। उनके पिता, महादेव विष्णु धुरंधर, खुद एक प्रतिष्ठित चित्रकार थे। कला उनके घर की दीवारों से लेकर सांसों तक में बसी थी।
लेकिन एक बेटी के लिए कला को सिर्फ ‘शौक’ की तरह देखा जाता था — पेशे के रूप में नहीं। अंबिका ने इस धारणा को न सिर्फ तोड़ा, बल्कि भारत की पहली महिला बनीं जिसने फाइन आर्ट्स में ग्रेजुएशन किया।
पिता का साया, कला की पहली पाठशाला
अंबिका धुरंधर के लिए उनके पिता न सिर्फ गुरु थे, बल्कि वह दीवार भी थे जो समाज की बंदिशों को तोड़ सकती थी। महादेव धुरंधर, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने ‘रायबहादुर’ की उपाधि दी थी, ने अपनी बेटी की प्रतिभा को पहचाना और उसे भरपूर प्रोत्साहन दिया। जहां लड़कियों को स्कूल भेजना भी वर्जित था, वहां अंबिका के हाथों में ब्रश और कैनवस थमाया गया।
बचपन से ही अंबिका धुरंधर को पौराणिक कहानियों और ऐतिहासिक चित्रों से लगाव था। वे अक्सर देवी-देवताओं, योद्धाओं, और रानियों की कल्पना करके उन्हें अपने रंगों में उकेरती थीं।
जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट : एक लड़की की हिम्मत
1930 का दशक। पुरुष-प्रधान जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में जब एक युवा लड़की दाखिला लेने पहुंची, तो कई भौंहें तन गईं। लेकिन अंबिका धुरंधर ने अपने काम से सबको चुप कर दिया। वह सटीक रेखाओं, गहरे रंगों और अपने विषयों की समझ के लिए जानी जाने लगीं।
अंबिका धुरंधर का एडमिशन एक क्रांति थी — ये संदेश था कि महिलाएं न सिर्फ कला कर सकती हैं, बल्कि उसमें इतिहास रच सकती हैं।
ब्रश के जरिए इतिहास की पुनर्रचना
अंबिका धुरंधर की कलाकृतियां केवल सुंदर चित्र नहीं थीं। वे एक ज़माने की गवाही थीं। उनके द्वारा बनाए गए चित्र ‘शिवराज्याभिषेक’, ‘झांसी की रानी’, ‘देवी अंबिका’, ‘पद्मावती’ — सभी इतिहास को एक नई दृष्टि से देखने का माध्यम बने।
उनके चित्रों में नारी शक्ति का गौरव, वीरता का तेज़ और भारतीय संस्कृति की गहराई झलकती थी।
महिला होने की चुनौतियाँ : कला और समाज के बीच संघर्ष
अंबिका धुरंधर का सफर आसान नहीं था। उस समय एक महिला चित्रकार को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। प्रदर्शनियों में उन्हें ‘दया’ से मौका मिलता, कला समीक्षक उनके स्त्री होने को पहले गिनते, प्रतिभा को बाद में।
लेकिन अंबिका धुरंधर ने कभी शिकायत नहीं की। उन्होंने केवल अपने चित्रों को बोलने दिया। और उनका हर चित्र समाज को जवाब देता गया।

स्वतंत्रता आंदोलन और संयुक्त महाराष्ट्र के साथ जुड़ाव
अंबिका धुरंधर केवल कलाकार नहीं थीं, वह एक जागरूक नागरिक भी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी घटनाओं को अपने चित्रों में सहेजा। उनका चित्र ‘विजयी भव’ गांधी जी को सलाम करता है, और ‘भारत माता’ देश की आत्मा को रेखांकित करता है।
बाद में, जब संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन चला, अंबिका ने उसमें भी अपनी कला के माध्यम से भाग लिया। उनके चित्रों में मराठी अस्मिता और सांस्कृतिक चेतना साफ दिखाई देती थी।
आत्मकथा : “माझी स्मरणचित्रे” में जीवन के रंग
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अंबिका धुरंधर ने अपनी आत्मकथा ‘माझी स्मरणचित्रे’ लिखी। यह केवल उनकी जीवन यात्रा नहीं, बल्कि एक कालखंड का दर्पण है। इसमें उनके बचपन, संघर्ष, सफलता, समाज और कला के साथ उनके रिश्ते को बड़े ही मानवीय रूप में लिखा गया है।
यह पुस्तक आज भी पढ़ने वालों को प्रेरणा देती है।
कला से जीवन तक : एक महिला की विरासत
अंबिका धुरंधर ने सिर्फ चित्र नहीं बनाए, उन्होंने रास्ते बनाए। आज जब कोई लड़की चित्रकला को करियर मानती है, तो कहीं न कहीं अंबिका की छाया उसमें होती है।
उनकी कला को भारत के कई प्रमुख संग्रहालयों और दीर्घाओं में सहेजा गया है, लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें वह राष्ट्रीय पहचान नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं।
मृत्यु नहीं, विराम
3 जनवरी 2009 को, 97 वर्ष की उम्र में अंबिका धुरंधर ने इस संसार को अलविदा कहा। लेकिन उनकी कला, उनका संघर्ष, और उनकी प्रेरणा आज भी जीवित है। उन्होंने जो बीज बोए थे, वे आज अनेक महिला कलाकारों के रूप में फल-फूल रहे हैं।
अंबिका धुरंधर की कला में नारी दृष्टिकोण की अनोखी झलक
अंबिका धुरंधर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने इतिहास और पौराणिक कथाओं को एक स्त्री की दृष्टि से चित्रित किया। जहाँ पुरुष चित्रकारों के चित्रों में युद्ध, पराक्रम और वीरता प्रमुख विषय होते थे, वहीं अंबिका के चित्रों में भावनाओं, संवेदनाओं और आंतरिक शक्ति की गहराई दिखती थी।
उनकी ‘झांसी की रानी’ सिर्फ तलवार लेकर लड़ने वाली योद्धा नहीं थीं, बल्कि एक माँ थीं, एक नारी थीं — जो मातृत्व और राष्ट्रप्रेम के बीच की कशमकश को जी रही थीं। उनके चित्र स्त्री के भीतर छिपे बल को, बिना शोर के, सशक्त रूप में दिखाते हैं।
रंगों और रेखाओं में भारतीयता की आत्मा
अंबिका धुरंधर का हर चित्र भारत की आत्मा से जुड़ा होता था। वे पाश्चात्य प्रभावों से दूर रहकर भारतीय रंगों, परिधानों, मंदिरों, लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को अपने कैनवस पर उतारती थीं।
उनकी कलाकृति ‘शिवराज्याभिषेक’ मराठा परंपरा को केवल एक चित्र में जीवंत कर देती है — जिसमें शिवाजी महाराज की आंखों में जिम्मेदारी की चमक, और प्रजा के चेहरे पर सम्मान झलकता है।
कला के माध्यम से सामाजिक सुधार की कोशिश
अंबिका धुरंधर के चित्रों में केवल ऐतिहासिक प्रसंग ही नहीं होते थे। वे उन सामाजिक विषयों को भी उठाती थीं, जिन्हें उस समय कोई छूना नहीं चाहता था। उन्होंने स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, विधवा की दशा, और नारी आत्मनिर्भरता जैसे विषयों पर चित्र बनाए।
उनका चित्र ‘शिक्षित कन्या’ में एक युवा लड़की किताब पढ़ती है, उसकी आंखों में आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की चाह है। इस चित्र को देखकर कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उनके काम को सराहा।
कला शिक्षिका के रूप में योगदान
फाइन आर्ट्स की डिग्री प्राप्त करने के बाद अंबिका केवल चित्रकार नहीं बनीं, बल्कि एक प्रशिक्षिका भी बनीं। उन्होंने कई लड़कियों को चित्रकला सिखाई, उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। उनका यह योगदान न केवल कला में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने वाला था, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन भी था।
उनके अनेक शिष्य आज भारत और विदेशों में कला के क्षेत्र में नाम कमा चुके हैं।
सम्मान और पहचान : जो देर से आई, मगर अमूल्य रही
भले ही अंबिका धुरंधर को उनके जीवनकाल में वह अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय ख्याति नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण मंचों ने उनके योगदान को सराहा। उन्हें बॉम्बे आर्ट सोसाइटी, आर्टिस्ट्स सेंटर, और कुछ स्थानीय सांस्कृतिक संगठनों द्वारा विशेष रूप से सम्मानित किया गया।
उनकी आत्मकथा के मराठी पाठ को महाराष्ट्र साहित्य मंडल ने सराहा और प्रकाशित किया।

एकाकी जीवन, लेकिन आत्मनिर्भर आत्मा
अंबिका धुरंधर ने कभी विवाह नहीं किया। उन्होंने अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया। यह फैसला उस समय के समाज में बहुत बड़ी बात थी, लेकिन अंबिका धुरंधर के लिए यह पूर्ण स्वतंत्रता और सृजनशीलता का प्रतीक था।
उन्होंने अपने जीवन को साधना के रूप में जिया — आत्मनिर्भर, आत्ममुग्ध और आत्मस्वाभिमानी।
उनके चित्रों का आज का महत्व
आज जब भारत कला, संस्कृति और नारी सशक्तिकरण के नए आयाम तलाश रहा है, तो अंबिका धुरंधर का योगदान फिर से मूल्यांकित किया जा रहा है। उनकी पेंटिंग्स आज राष्ट्रीय संग्रहालयों, प्राइवेट गैलरियों, और कला शोधों का विषय बन चुकी हैं।
उनकी शैली, विषयवस्तु और दृष्टिकोण पर शोध किए जा रहे हैं, और नई पीढ़ी की कलाकारें उनसे प्रेरणा ले रही हैं।
अंबिका धुरंधर की आत्मकथा: “माझं जीवन चित्र”
अंबिका धुरंधर ने अपने जीवन के अनुभवों को शब्दों में भी ढाला। उन्होंने मराठी में एक आत्मकथा लिखी — “माझं जीवन चित्र” (मेरे जीवन की चित्रकथा)। यह आत्मकथा केवल उनके जीवन की कहानी नहीं है, बल्कि बीसवीं सदी के सामाजिक, सांस्कृतिक और कलात्मक बदलावों का दर्पण है।
इस आत्मकथा में अंबिका धुरंधर ने अपने बचपन, पिता से जुड़े संस्मरण, कला की पढ़ाई में आई बाधाएं, समाज के ताने, महिलाओं की स्थिति, और कला के प्रति अपने समर्पण को बहुत ही संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है।
यह आत्मकथा आज के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती है, विशेषकर उन लड़कियों के लिए जो परंपराओं के बीच अपनी पहचान बनाना चाहती हैं।
पितृछाया से आत्मनिर्भरता की यात्रा
हालाँकि अंबिका धुरंधर के पिता महादेव विष्णु धुरंधर जैसे महान चित्रकार थे, पर उन्होंने कभी अंबिका पर अपनी शैली नहीं थोपी। उन्होंने उसे स्वतंत्र रूप से सोचने और रचने की छूट दी। यह छूट ही अंबिका को एक स्वतंत्र विचारक और कलाकार बनाने में सहायक बनी।
लेकिन जैसे-जैसे अंबिका धुरंधर ने अपनी शैली विकसित की, उन्होंने यह भी सीखा कि आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक या तकनीकी नहीं होती — वह विचार और दृष्टिकोण की स्वतंत्रता से आती है। उनके चित्रों में यह भावनात्मक आत्मनिर्भरता साफ झलकती है।
कला और राष्ट्रवाद का संगम
1930-40 के दशक में भारत स्वतंत्रता संग्राम से गुजर रहा था। इस दौर में अंबिका धुरंधर की कला भी राष्ट्रप्रेम और सांस्कृतिक चेतना से ओतप्रोत थी। उन्होंने भारतीय पौराणिक चरित्रों के माध्यम से स्वराज, आत्मसम्मान और स्वदेशी चेतना को चित्रों में ढाला।
उनकी पेंटिंग “भारत माता” उस दौर में काफी चर्चित हुई — जिसमें भारत माता को पारंपरिक साड़ी में, शांत लेकिन जागरूक रूप में दर्शाया गया था। ये चित्र कलात्मक प्रतिरोध के उदाहरण बन गए।
हिला चित्रकारों के लिए मार्गदर्शक
अंबिका धुरंधर ने केवल स्वयं के लिए रास्ता नहीं बनाया, बल्कि अनेक महिलाओं को कला की ओर आकर्षित किया। वे महिलाओं को ये यकीन दिलाने में सफल रहीं कि कला पुरुषों की बपौती नहीं, और एक स्त्री भी रंगों से दुनिया को नया दृष्टिकोण दे सकती है।
उनके प्रयासों से बंबई (अब मुंबई) में कई महिला चित्रकारों ने कला की पढ़ाई शुरू की, और धीरे-धीरे कला की दुनिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी।
उनका कार्य आधुनिक भारत के लिए क्यों प्रासंगिक है?
आज जबकि भारत में महिला सशक्तिकरण, संस्कृति संरक्षण और रचनात्मक स्वतंत्रता जैसे विषय चर्चा में हैं, अंबिका धुरंधर का जीवन और कार्य एक आदर्श केस स्टडी बन सकता है।
उनके चित्रों में संवेदनशीलता, गहराई और भारतीयता का जो समन्वय है, वह आज की पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक दिशा हो सकता है।
उनकी जीवन यात्रा यह संदेश देती है कि:
रचनात्मकता में साहस जरूरी है
संवेदनशीलता भी शक्ति है
परंपरा को तोड़ने के लिए ज्ञान और दृष्टि चाहिए, विद्रोह नहीं
मीडिया और संस्थानों की भूमिका
दुर्भाग्यवश, अंबिका को वह प्रचार नहीं मिला जिसकी वे अधिकारी थीं। न ही उनके चित्र बड़े मीडिया चैनलों पर आए, और न ही बड़े संग्रहालयों में उनकी प्रदर्शनियों को लगातार जगह मिली। यह एक बहुत बड़ा नुकसान है, जिसे आज सुधारा जा सकता है।
आज आवश्यकता है कि:
राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनियाँ आयोजित हों
सरकारी पाठ्यक्रमों में उनका जीवन शामिल किया जाए
डिजिटल माध्यमों पर उनकी कला को पुनर्जीवित किया जाए
अंबिका धुरंधर पर डॉक्यूमेंट्री और फिल्म की जरूरत
उनके जीवन पर अब तक कोई प्रमुख फिल्म या टीवी सीरीज़ नहीं बनी है, जबकि उनका जीवन पूरी तरह से एक प्रेरक बायोपिक के लायक है। उनके जीवन में संघर्ष, दृढ़ता, कला और आत्मबल की वह सब खूबियाँ हैं जो किसी भी सशक्त कहानी को ज़िंदा बना सकती हैं।
अबिका के कार्यों का डिजिटलीकरण
आज के डिजिटल युग में उनकी पेंटिंग्स और दस्तावेज़ों का डिजिटलीकरण अत्यंत आवश्यक है, ताकि भविष्य की पीढ़ियाँ उनसे जुड़ सकें। उनकी कला को ऑनलाइन गैलरियों, वर्चुअल एग्जीबिशन और शैक्षणिक वेबसाइट्स पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
अंबिका की सोच और आज का महिला आंदोलन
आज जब महिलाएं हर क्षेत्र में बराबरी की लड़ाई लड़ रही हैं, तब अंबिका जैसी महिला कलाकार की यात्रा एक प्रतीक बन सकती है — बिना नारों और आंदोलन के, उन्होंने अपनी कला से बदलाव लाया।
उनका जीवन बताता है कि नारीवाद केवल संघर्ष नहीं, सृजन भी है।
भविष्य की प्रेरणा : स्कूलों और कॉलेजों में उनके विचार
आज जरूरत है कि अंबिका जैसे कलाकारों को केवल आर्ट गैलरी तक सीमित न रखा जाए। उनके चित्रों और आत्मकथा को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, ताकि बच्चों को पता चले कि सृजन की शक्ति से भी क्रांति लाई जा सकती है।
उनके जीवन से यह सिखने को मिलता है कि बिना क्रोध, बिना शोर और बिना विद्रोह किए भी बदलाव संभव है — बस उस बदलाव में सच्चाई, कला और संवेदना होनी चाहिए।
अंतिम संदेश: रंगों में लिखी एक प्रेरणा गाथा
अंबिका धुरंधर का जीवन उस ब्रश की तरह है जो सादी दीवार को जीवन देता है, जो रंगों से सिर्फ चित्र नहीं, विचार रचता है। वे इतिहास की किताबों में नहीं, बल्कि हर उस लड़की के दिल में जीवित हैं जो अपने सपनों को उड़ान देने की चाह रखती है।
उनकी कहानी केवल पढ़ने या सुनने की नहीं है — महसूस करने की है।
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