आदि शंकराचार्य की पंचधातु मूर्तियाँ: भारतीय संस्कृति की जीवंत वापसी और आध्यात्मिक जागरण की शुरुआत!
भूमिका: आदि शंकराचार्य भारत की आध्यात्मिक चेतना के वाहक
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Toggleभारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत सांस्कृतिक चेतना है। यह चेतना ऋषियों, संतों और मनीषियों की आत्मा से पोषित होती रही है।
ऐसे ही एक महामानव थे आदि शंकराचार्य, जिन्होंने केवल 32 वर्षों के जीवन में पूरे भारत को वेदांत, अद्वैत और सनातन धर्म के सूत्र में बांधा।
आज आदि शंकराचार्य की स्मृति को अमर करने के लिए दक्षिण भारत के थंजावुर जिले के थिम्माकुडी गांव में बनी चार पंचधातु मूर्तियाँ उत्तराखंड के केदारनाथ, बद्रीनाथ और ज्योतिर्मठों में स्थापित की जा रही हैं।
यह पहल एक साधारण मूर्ति स्थापना नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक पुनर्पुष्टि का विराट उदाहरण है।
आदि शंकराचार्य: एक परिचय
आदि शंकराचार्य 8वीं सदी के एक महान संत, दार्शनिक और समाज-सुधारक थे। आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका जीवन चारों दिशाओं में ज्ञान का दीपक जलाने और सनातन परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित था।
जन्म: केरल के कालड़ी गाँव में
मुख्य कार्य: चार मठों की स्थापना – शृंगेरी (दक्षिण), द्वारका (पश्चिम), पुरी (पूर्व), ज्योतिर्मठ (उत्तर)
दर्शन: अद्वैत वेदांत – “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या”
लक्ष्य: धर्म की रक्षा, सांप्रदायिक एकता, ज्ञान का प्रसार
आदि शंकराचार्य का जीवन दर्शन
जन्म: 8वीं शताब्दी में केरल के कालड़ी में।
उद्देश्य: हिन्दू धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और पाखंड का विरोध कर वेदांत को पुनःस्थापित करना।
उन्होंने भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किए:
उत्तर: ज्योतिर्मठ (उत्तराखंड)
दक्षिण: श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक)
पूर्व: गोवर्धन पीठ, पुरी (ओडिशा)
पश्चिम: द्वारका पीठ (गुजरात)
दर्शन: अद्वैत वेदांत — “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः”
पंचधातु मूर्तियों का महत्व
पंचधातु का धार्मिक महत्व बेहद गहरा है। यह पाँच धातुओं — सोना, चाँदी, ताँबा, सीसा और जस्ता — का मिश्रण है। शास्त्रों के अनुसार, यह मिश्रण न केवल मूर्ति को भौतिक रूप से टिकाऊ बनाता है, बल्कि उसमें “प्राण-प्रतिष्ठा” के समय ऊर्जा धारण करने की शक्ति भी देता है।
सांस्कृतिक दृष्टि से: पंचधातु मूर्तियाँ भारत की पारंपरिक शिल्पकला की पहचान हैं।
धार्मिक दृष्टि से: पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का प्रतिनिधित्व।
आध्यात्मिक दृष्टि से: इनमें लंबे समय तक ऊर्जा संग्रहण की क्षमता मानी जाती है।
थिम्माकुडी: साधारण गाँव, असाधारण शिल्पकला
थंजावुर जिले के स्वामिमलाई के निकट स्थित यह गाँव पीढ़ियों से मूर्ति निर्माण में माहिर है। यहाँ के ‘स्थापति’ परंपरा से यह कार्य कर रहे हैं, जो विश्वभर में प्रसिद्ध है।
मूर्तियाँ बनाने में ‘लॉस्ट वैक्स कास्टिंग’ (मधु मोम प्रक्रिया) का उपयोग होता है।
यह प्रक्रिया वैदिक काल से चली आ रही है, जिसे UNESCO ने भी सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है।
आदि शंकराचार्य की चार मूर्तियाँ 12 फीट लंबी हैं और हर एक में महीनों का श्रम लगा है।

निर्माण प्रक्रिया: परंपरा और विज्ञान का संगम
1. डिज़ाइन तैयार करना – पहले आदि शंकराचार्य के जीवन और उनके आसनों का गहन अध्ययन होता है।
2. मोम की आकृति बनाना – एकदम सटीक और जीवंत चेहरे और हावभाव।
3. मिट्टी की परतें चढ़ाना – मोम पर मिट्टी की 7–9 परतें।
4. धातु का मिश्रण तैयार करना – प्राचीन विधि से शुद्ध पंचधातु तैयार की जाती है।
5. ढलाई और ठंडा करना – फिर महीनों की सफाई, नक्काशी, और चमक।
मूर्तियों का गंतव्य: उत्तराखंड के तीन तीर्थ
i. केदारनाथ: समाधिस्थल और शक्ति का केंद्र
आदि शंकराचार्य की समाधि स्थल यहीं मानी जाती है।
मूर्ति की स्थापना से यह स्थान एक बार फिर सनातन परंपरा के केंद्र में आ जाएगा।
ii. बद्रीनाथ: भक्ति और वेदांत का संगम
यहाँ आदि शंकराचार्य ने तपस्या की और वेदांत के सिद्धांतों का प्रचार किया।
उनकी उपस्थिति से यह धाम वैदिक चेतना का मूर्त रूप बन जाएगा।
iii. ज्योतिर्मठ (उत्तराम्नाय मठ): ज्ञान की ज्योति
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में यह उत्तर का प्रतिनिधि मठ है।
यहाँ पर मूर्ति की स्थापना से शंकराचार्य के दर्शन और विरासत को नई ऊर्जा मिलेगी।
मूर्ति स्थापना का प्रतीकात्मक महत्व: सांस्कृतिक एकता की पुनर्पुष्टि
भारत में मूर्तियों की स्थापना केवल किसी व्यक्ति की स्मृति को संजोने तक सीमित नहीं होती। जब यह मूर्ति आदि शंकराचार्य जैसे सनातन वैदांत के प्रणेता की हो, तो इसका अर्थ होता है – धर्म, दर्शन और राष्ट्र चेतना का पुनर्जागरण।
राष्ट्रीय एकता का प्रतीक: उत्तराखंड में दक्षिण भारत की शिल्पकला की उपस्थिति, ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की सशक्त मिसाल है।
धार्मिक चेतना का नव जागरण: युवाओं और श्रद्धालुओं के लिए यह मूर्तियाँ वैदिक ज्ञान को जीवित रखने वाली प्रेरणा बनेंगी।
पर्यटन और सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ावा: इन स्थलों पर आने वाले तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए एक नया आयाम जुड़ेगा।
पंचधातु मूर्तियों का महत्त्व
पंचधातु यानी पांच धातुओं – सोना, चांदी, तांबा, जस्ता और सीसा – का मिश्रण, जिनसे हिन्दू धर्म में अत्यंत पवित्र मूर्तियाँ बनती हैं। इन धातुओं का संयोजन न केवल मूर्ति को दीर्घकालिक बनाता है, बल्कि उसमें आध्यात्मिक ऊर्जा भी समाहित होती है।
ये धातुएँ शरीर के पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का प्रतीक मानी जाती हैं।
मूर्ति में ध्वनि, प्रकाश और ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है, जो साधकों को आध्यात्मिक अनुभूति प्रदान करता है।
शिल्प निर्माण का पवित्र स्थल: थिम्माकुडी और स्वामिमलाई
थंजावुर ज़िले के थिम्माकुडी और स्वामिमलाई गाँव भारत के प्राचीनतम मूर्तिकला केन्द्रों में से हैं। यहाँ के कारीगर चोल काल से पंचधातु मूर्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इन मूर्तियों की खासियत है:
शास्त्र सम्मत निर्माण: ‘शिल्पशास्त्र’ और ‘आगम’ ग्रंथों के अनुसार मूर्तियों का आकार, मुद्रा, अनुपात तय किया जाता है।
हाथों से निर्मित: प्रत्येक मूर्ति को महीनों तक सिर्फ हाथ से गढ़ा जाता है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया: निर्माण से पहले भूमि पूजन, अग्नि स्थापना और मंत्रोच्चारण के साथ कार्य आरंभ किया जाता है।
मूर्तियों की विशेषताएँ
ऊँचाई: हर मूर्ति लगभग 10 फीट ऊँची है
वजन: एक मूर्ति का वजन लगभग 1.5 टन है
मुद्रा: ध्यानस्थ मुद्रा में, हाथों में दंड, कमंडलु और वेद
चेहरे की अभिव्यक्ति: तेजस्विता, शांति और करुणा की जीवंत झलक
इन मूर्तियों को देखकर साधक न केवल शंकराचार्य की छवि को देखेंगे, बल्कि उनके अद्वैत दर्शन का अनुभव करेंगे।
मूर्तियों का गंतव्य: उत्तर भारत के दिव्य स्थल
चारों मूर्तियों को देश के उत्तर दिशा के चार विशेष स्थानों पर स्थापित किया जा रहा है:
1. केदारनाथ (उत्तराखंड) – शिव के तीर्थ पर शंकर का पुनः प्राकट्य
2. बद्रीनाथ – विष्णु के सान्निध्य में अद्वैत की स्थापना
3. ज्योतिर्मठ (उत्तरकाशी) – उत्तर भारत का शंकराचार्य मठ
4. उत्तारमन्य ज्योतिर्मठ – ज्ञान के विस्तार का केन्द्र
शिल्पकारों का भावनात्मक जुड़ाव और उनकी साधना
थिम्माकुडी और स्वामिमलाई के शिल्पकार केवल कारीगर नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कलाकार हैं। उनके लिए यह कार्य केवल एक मूर्ति बनाना नहीं, बल्कि “आत्मा को रूप देना” है।
पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा: शिल्पकारों के पूर्वज चोल काल से राजा-रानी और देवताओं की मूर्तियाँ बनाते आए हैं।
गौरव का क्षण: जब इन मूर्तियों को हिमालय में स्थापित किया जाएगा, तब इन कलाकारों के लिए यह किसी पुरस्कार से कम नहीं होगा।
प्रशिक्षण और अनुशासन: हर कलाकार को वर्षों की ट्रेनिंग के बाद ही पंचधातु मूर्ति निर्माण की अनुमति मिलती है।
निर्माण में आने वाली चुनौतियाँ और समाधान
मौसम और नमी की बाधा: भारी वर्षा या गर्मी में धातु पिघलाने और ठंडा करने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
मूर्तियों को उत्तराखंड तक सुरक्षित पहुँचाना: हज़ारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान हर मूर्ति की सुरक्षा के लिए विशेष कंटेनरों का निर्माण किया गया।
एकरूपता और शास्त्रीय सटीकता बनाए रखना: शास्त्रों के अनुसार, आदि शंकराचार्य की मुद्रा, हावभाव और चिन्हों को पूरी तरह से अनुकूल बनाए रखना अत्यंत आवश्यक था।
सरकार और समाज की भूमिका
भारत सरकार का सहयोग: सांस्कृतिक मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार ने इस परियोजना को हर स्तर पर समर्थन दिया।
स्थानीय जनसमुदाय की भागीदारी: उत्तराखंड के तीर्थस्थलों पर स्थानीय पुजारी, संत समाज और जनता ने स्वागत की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं।
भविष्य की योजनाएँ: इसी मॉडल को देश के अन्य संतों और मनीषियों के लिए भी अपनाया जा सकता है ताकि संत परंपरा को जीवंत रखा जा सके।
मूर्तियों की यात्रा: एक पवित्र यात्रा का प्रारंभ
इन मूर्तियों को थिम्माकुडी से उत्तराखंड तक लाने की यात्रा केवल भौगोलिक दूरी तय करना नहीं है, यह श्रद्धा, भक्ति और राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता की यात्रा है।
मूर्तियाँ विशेष ट्रकों पर सजाए गए रथों में लायी गईं, जिनकी सुरक्षा और स्थिरता के लिए उन्नत तकनीकें अपनाई गईं।
रास्ते में पड़ने वाले अनेक गाँवों और नगरों में श्रद्धालुओं ने फूलों से स्वागत किया, आरती की और शंख-घंटियों की गूंज से वातावरण को पवित्र कर दिया।
यह यात्रा भारत की एकता, विविधता और धर्म के प्रति आस्था का जीवंत प्रमाण बनी।
मूर्ति स्थापना समारोह: धर्म और संस्कृति का संगम
स्थापना समारोह केवल धार्मिक क्रिया नहीं है, यह वेद, कला और लोक परंपराओं का मेल है:
चारों स्थानों पर प्रातः काल से वेदपाठ, यज्ञ और अभिषेक हुआ।
मूर्तियों को ध्वज, पुष्प, रत्न, पंचामृत और शुद्ध जल से स्नान कराकर स्थापित किया गया।
साधु-संतों, विद्वानों, स्थानीय प्रशासन और हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में यह समारोह एक महान आध्यात्मिक आयोजन बना।

मूर्तिकारों की भावना: यह सिर्फ कार्य नहीं, तपस्या है
थिम्माकुडी और स्वामिमलाई के मूर्तिकारों के लिए यह कार्य केवल एक पेशा नहीं था, बल्कि उनके लिए यह आध्यात्मिक दायित्व और सांस्कृतिक सेवा थी।
कई कारीगरों ने कहा, “हमने इसे भगवान के रूप में गढ़ा है, और हर हथौड़ी हमारे लिए मंत्र थी।”
मूर्तियाँ बनाते समय उपवास, ध्यान और मंत्रोच्चारण किया गया।
एक कारीगर ने कहा: “ये मूर्तियाँ भारत की आत्मा हैं, इन्हें गढ़ना हमें जन्मों का सौभाग्य लगता है।”
अद्वैत दर्शन की पुनर्स्थापना: शंकर की वापसी
इन मूर्तियों के माध्यम से केवल एक संत की छवि नहीं लौटी, बल्कि भारत के सबसे प्राचीन और गूढ़ दर्शन – अद्वैत वेदांत का पुनर्जन्म हुआ:
“मैं ब्रह्म हूँ, तू भी ब्रह्म है” – यह भावना शंकराचार्य ने फैलायी।
आज जब देश अनेक खाँचों में बँटा दिखाई देता है, तब यह मूर्तियाँ उस एकत्व की पुकार हैं।
मूर्तियाँ हमें याद दिलाती हैं कि हम सब एक ही चेतना के अंश हैं।
युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा
इस पहल का एक गहरा प्रभाव नई पीढ़ी पर भी पड़ेगा:
आज का युवा इतिहास और संस्कृति से दूर हो रहा है।
इन मूर्तियों के माध्यम से उसे पता चलेगा कि भारत केवल युद्धों और राजाओं का नहीं, बल्कि ज्ञान और साधना का देश है।
विद्यालयों में आदि शंकराचार्य के विचारों पर आधारित कार्यक्रम, वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ और नाटक आयोजित किए जा सकते हैं।
पर्यटन और अर्थव्यवस्था को मिलेगा बल
जहाँ मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं, वहाँ न केवल धार्मिक महत्व बढ़ेगा, बल्कि स्थानीय पर्यटन और रोजगार को भी लाभ मिलेगा:
केदारनाथ और बद्रीनाथ वैसे भी तीर्थ हैं, पर अब आदि शंकराचार्य मूर्तियाँ इन्हें वैदिक और सांस्कृतिक तीर्थ भी बनाएँगी।
स्थानीय गाइड, दुकानें, शिल्पकार, होटल व्यवसायियों को स्थायी आय का स्रोत मिलेगा।
संस्कृति और राजनीति का संतुलन
यह परियोजना धर्म और राजनीति के बीच संतुलन का उदाहरण भी है:
सरकार ने इसमें संरक्षक की भूमिका निभाई, न कि प्रचार की।
मूर्तियों को बनवाकर उत्तराखंड के पहाड़ों में स्थापित करना यह संकेत है कि भारत की आत्मा अब भी जीवित है।
राष्ट्रीय एकता का संदेश
चार मूर्तियाँ – चार दिशाओं से जुड़ी हुई – हमें यह सिखाती हैं कि:
भारत केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से जुड़ा हुआ राष्ट्र है।
दक्षिण भारत में बनी मूर्ति, उत्तर भारत में स्थापित – यह वही अखंडता है जो शंकराचार्य ने अपने जीवन में दिखाई थी।
एक विश्व संदेश
इन मूर्तियों का संदेश केवल भारत तक सीमित नहीं है:
आज पूरी दुनिया भारत को “अध्यात्म की भूमि” मानती है।
आदि शंकराचार्य की छवि और दर्शन दुनिया को आंतरिक शांति, ज्ञान और समरसता की ओर प्रेरित करेगा।
यह मूर्तियाँ उन लाखों विदेशियों के लिए भी आकर्षण होंगी, जो भारत की आत्मा को देखने आते हैं।
निष्कर्ष
आदि शंकराचार्य की पंचधातु मूर्तियों का निर्माण और उनका उत्तराखंड के विभिन्न तीर्थस्थलों में प्रतिष्ठापन एक अत्यंत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहल है।
यह मूर्तियाँ केवल शंकराचार्य की दिव्यता और उनके अद्वैत वेदांत के दर्शन का प्रतीक नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिक एकता की गहरी पहचान हैं।
यह पहल भारतीय समाज को अपनी महानतम धरोहर और मूल्य वापस दिलाने का प्रयास है, जो समय के साथ धुंधला हो गए थे। इन मूर्तियों की स्थापना न केवल एक धार्मिक कार्य है, बल्कि यह भारत के चारों दिशाओं में एकता, प्रेम और सामूहिकता का संदेश भी है।
मूर्तिकारों द्वारा इन मूर्तियों के निर्माण की प्रक्रिया, जिसमें शिल्प, पूजा और तपस्या का अद्भुत संगम था, इसका महत्व केवल शारीरिक रूप में नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी है।
युवाओं के लिए यह एक प्रेरणा है कि वे अपनी सांस्कृतिक जड़ों को समझें और उन्हें गर्व के साथ अपनाएँ। साथ ही, इस पहल का पर्यटन, अर्थव्यवस्था और स्थानीय रोजगार पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
यह न केवल एक धार्मिक कृत्य है, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुद्धार का एक महत्वपूर्ण कदम भी है।
आखिरकार, आदि शंकराचार्य की ये पंचधातु मूर्तियाँ हमें यह याद दिलाती हैं कि हम सब एक ही ब्रह्म का हिस्सा हैं, और यही संदेश हमें अपने समाज और राष्ट्र की एकता, समानता और विकास की ओर प्रेरित करता है।
यह स्थापना एक युग का पुनः पदार्पण है, जिसमें हम अपने अतीत से जुड़कर उसे पुनः जीवित करते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसे संजोए रखें और इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाएं।
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