कुचिपुड़ी नृत्य कैसे बना एक सांस्कृतिक धरोहर और विश्व मंच पर चमकता सितारा?

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कुचिपुड़ी: क्या यह भारतीय कला का सबसे जीवंत और आध्यात्मिक रूप है?

प्रस्तावना: भारतीय शास्त्रीय नृत्य की विविधता

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भारत विविधताओं का देश है – यहाँ की संस्कृति, भाषा, खान-पान से लेकर कला और नृत्य तक, सबकुछ एक अनोखी छटा बिखेरता है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा में कुल आठ प्रमुख नृत्य शैलियाँ सम्मिलित हैं, जिनमें से एक है कुचिपुड़ी।

यह नृत्य शैली न केवल अपनी लयात्मकता और भाव-भंगिमा के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसके पीछे छिपी आध्यात्मिकता और कथात्मक गहराई इसे विशेष बनाती है।

कुचिपुड़ी का नाम और उद्गम स्थल

कुचिपुड़ी नृत्य शैली का नाम आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गाँव कुचेलापुरम् (Kuchipudi) से पड़ा है, जो अब कृष्णा ज़िले में स्थित है। यही वह स्थान है जहाँ इस नृत्य शैली की उत्पत्ति हुई और जहाँ इसकी परंपरा सदियों से फलती-फूलती रही है।

इतिहास की परतें: कुचिपुड़ी का विकास

प्रारंभिक काल

कुचिपुड़ी की जड़ें प्राचीन भारत की नाट्यशास्त्र परंपरा में हैं। भरतमुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र’ में उल्लिखित भाव, रास और अभिनय की तकनीकों को इस नृत्य में प्रमुखता से देखा जा सकता है।

सिद्धेन्द्र योगी का योगदान

कुचिपुड़ी को एक व्यवस्थित और मंचीय रूप देने का श्रेय जाता है सिद्धेन्द्र योगी को। उन्होंने 14वीं-15वीं शताब्दी के दौरान ब्राह्मण पुरुषों को प्रशिक्षण देकर कुचिपुड़ी को एक विशिष्ट ‘नृत्य-नाटिका’ के रूप में विकसित किया।

उन्होंने ‘भामाकलापम्’ नामक नाटिका की रचना की, जो आज भी इस शैली की पहचान मानी जाती है।

मुख्य विशेषताएँ: क्या बनाता है कुचिपुड़ी को अनोखा

1. नृत्य-नाट्य शैली

कुचिपुड़ी एक मात्र नृत्य नहीं है, बल्कि यह नृत्य, नाट्य और गायन का त्रिवेणी संगम है। इसमें कथात्मक प्रस्तुतियों के माध्यम से धार्मिक और पौराणिक कथाओं को जीवंत किया जाता है।

2. भाव और रास का अद्भुत संगम

इस नृत्य में ‘अभिनय’ का अत्यधिक महत्व है। चेहरे की भाव-भंगिमा (भव), नेत्रों की चपलता और मुद्राओं की सुंदरता से यह शैली दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

3. पाँव की गति और ताल

कुचिपुड़ी में पाँव की गतियाँ और तालबद्ध थाप अत्यंत सटीक होती हैं। नर्तक अक्सर घंटियों (घुंघरुओं) के साथ ताल में नृत्य करते हैं, जिससे उनके पाँवों की लय सुनाई देती है।

4. मंचीय नाटक

एक अनोखी बात यह है कि पारंपरिक कुचिपुड़ी प्रस्तुतियों में कभी-कभी कलाकार ताँबे के बर्तन पर खड़े होकर नृत्य करते हैं – इसे ‘तरंगम’ कहते हैं। यह दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देता है और कलाकार की साधना का प्रमाण होता है।

प्रमुख नृत्य-नाटिकाएँ

1. भामाकलापम् – रुक्मिणी और सत्यभामा के प्रेम पर आधारित।

2. उषा परिणयम् – उषा और अनिरुद्ध की प्रेमकथा।

3. पार्थसारथि – भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद पर आधारित।

4. गजेंद्र मोक्षम् – भगवान विष्णु द्वारा गजेंद्र की रक्षा की कथा।

वेशभूषा और श्रृंगार: कला की सजावट

कुचिपुड़ी में वेशभूषा का अत्यंत महत्व होता है। महिला कलाकार पारंपरिक आंध्र शैली की साड़ी पहनती हैं, जो विशेष रूप से नृत्य के लिए डिजाइन की जाती है। पुरुष कलाकार धोती और अंगवस्त्र पहनते हैं।

श्रृंगार में नेत्रों को उभारने के लिए काजल, माथे पर बिंदी, बालों में फूल, और गहनों में पारंपरिक आभूषण – यह सब दर्शकों को दृश्य सौंदर्य प्रदान करता है।

कुचिपुड़ी नृत्य कैसे बना एक सांस्कृतिक धरोहर और विश्व मंच पर चमकता सितारा?
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संगीत और वाद्य यंत्र

कुचिपुड़ी का संगीत कर्नाटिक संगीत पर आधारित होता है। इसमें प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं:

मृदंगम

वायलिन

वीणा

नटवंगम (ताल देने वाला यंत्र)

बांसुरी

नट्टुवनार (ताल देने वाले गुरु) मंच पर उपस्थित रहकर नर्तक की गति, ताल और अभिनय को निर्देशित करते हैं।

प्रशिक्षण और परंपरा

कुचिपुड़ी की परंपरा पहले गुरुकुल प्रणाली पर आधारित थी। विद्यार्थी अपने गुरु के आश्रम में रहकर नृत्य, संगीत, साहित्य, संस्कृत और धर्मशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करते थे। आज भी कई प्रतिष्ठित नृत्य विद्यालय और संस्थान हैं जो इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।

महिला कलाकारों की भूमिका और आधुनिक बदलाव

प्रारंभ में कुचिपुड़ी नृत्य केवल पुरुष ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था। वे स्त्री पात्रों की भी भूमिका निभाते थे। परंतु 20वीं शताब्दी में यह परंपरा बदली और महिलाओं ने भी इस कला में सक्रिय भागीदारी शुरू की। आज महिला कलाकारों ने कुचिपुड़ी को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचा दिया है।

प्रमुख कलाकार जिन्होंने दी नई ऊँचाई

1. Yamini Krishnamurthy – जिन्होंने भारत और विदेशों में कुचिपुड़ी की छवि को चमकाया।

2. Dr. Vempati Chinna Satyam – जिनकी कोरियोग्राफी और प्रशिक्षण ने इस कला को विश्वस्तरीय बना दिया।

3. Swapnasundari, Raja-Radha Reddy, और अन्य कलाकारों ने भी इसे जन-जन तक पहुँचाया।

कुचिपुड़ी और आध्यात्मिकता

कुचिपुड़ी केवल कला नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना है। इसमें नृत्य करते समय कलाकार भगवान की भूमिका निभाता है – चाहे वह कृष्ण हो, राम हो या देवी। इसलिए यह नृत्य कलाकार और दर्शक दोनों को एक दिव्यता का अनुभव कराता है।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर कुचिपुड़ी

आज कुचिपुड़ी भारत की सीमाओं को पार कर विश्वभर में प्रशंसा पा रहा है। अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के अनेक देशों में इसके प्रशिक्षण केंद्र हैं। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) भी विदेशों में इसकी प्रस्तुतियाँ करवाती है।

संरक्षण और चुनौतियाँ

हालाँकि सरकार और विभिन्न संस्थान इस कला को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं, फिर भी आज की नई पीढ़ी में इसकी जागरूकता कम हो रही है।

डिजिटल युग में लोग तेजी से नृत्य की आधुनिक शैलियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे में कुचिपुड़ी जैसी परंपरागत कला को बचाए रखने के लिए:

विद्यालयों में पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया जाना चाहिए।

क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ आयोजित की जानी चाहिए।

कलाकारों को आर्थिक और सामाजिक सहयोग मिलना चाहिए।

कुचिपुड़ी और नाट्यशास्त्र का संबंध

कुचिपुड़ी का निर्माण भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और नंदिकेश्वर के अभिनय दर्शन पर आधारित है। इसमें चार प्रमुख प्रकार के अभिनय (अभिनय चतुष्टय) देखने को मिलते हैं:

1. आंगिक अभिनय – शरीर, हाथ, आँखों और मुख के हावभाव।

2. वाचिक अभिनय – संवाद या गायन द्वारा अभिव्यक्ति।

3. आहार्य अभिनय – वेशभूषा और साज-सज्जा।

4. सात्त्विक अभिनय – अंतरात्मा से उत्पन्न भावों की प्रस्तुति।

कुचिपुड़ी इन चारों प्रकारों का अद्भुत संतुलन प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि इसे ‘पूर्ण कला’ माना जाता है।

शैव और वैष्णव परंपरा की झलक

कुचिपुड़ी नृत्य में वैष्णव मत का गहरा प्रभाव है। विशेषकर भगवान विष्णु, कृष्ण, और उनके विभिन्न अवतारों पर आधारित कथाएँ प्रमुख रूप से प्रस्तुत की जाती हैं। परंतु, कुछ रचनाओं में शैव मत (शिव जी) और शाक्त परंपरा (देवी दुर्गा या पार्वती) की झलक भी मिलती है।

कुचिपुड़ी नृत्य कैसे बना एक सांस्कृतिक धरोहर और विश्व मंच पर चमकता सितारा?
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‘तरंगम’ – कुचिपुड़ी की अद्वितीय प्रस्तुति

‘तरंगम’ कुचिपुड़ी की वह विशेषता है जो इसे अन्य नृत्य शैलियों से अलग बनाती है। इसमें नर्तक:

एक पीतल या ताँबे के बर्तन पर खड़े होकर नृत्य करता है।

पाँवों में घुंघरू बाँधकर, ताल और लय को बनाए रखते हुए विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन करता है।

अक्सर भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित गीतों पर यह प्रस्तुत किया जाता है।

यह नृत्य कौशल, संतुलन और साधना का जीवंत प्रदर्शन होता है।

कुचिपुड़ी और धार्मिक अनुष्ठान

पारंपरिक रूप से कुचिपुड़ी नृत्य:

मंदिरों में धार्मिक अवसरों पर प्रस्तुत किया जाता था।

यज्ञ और पूजा के समय इसे भगवान को अर्पण किया जाता था।

यह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भक्ति का साधन था।

इसका प्रमुख उद्देश्य ‘नाट्य के माध्यम से धर्म और अध्यात्म की अभिव्यक्ति’ था।

कुचिपुड़ी और शिक्षा संस्थान

आधुनिक युग में कुचिपुड़ी का प्रशिक्षण निम्नलिखित संस्थानों में दिया जाता है:

  1. Kuchipudi Art Academy, चेन्नई (डॉ. वेम्पति चिन्ना सत्यम् द्वारा स्थापित)
  2. Kalakshetra Foundation, चेन्नई
  3. Potti Sreeramulu Telugu University, हैदराबाद
  4. Siddhendra Kalakshetram, Kuchipudi गाँव, आंध्र प्रदेश

इन संस्थानों में पारंपरिक और आधुनिक पद्धतियों के माध्यम से सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

कुचिपुड़ी और साहित्यिक काव्य

Kuchipudi में नाटिकाएँ तेलुगु भाषा में होती हैं। इन रचनाओं का साहित्यिक स्तर अत्यंत उच्च होता है। कुछ प्रमुख रचनाकार हैं:

सिद्धेन्द्र योगी

मेलट्टूर वेंकटश

बालाजी

कुंडुरु नरसिंह

इन कवियों की रचनाएँ आध्यात्मिक, धार्मिक और नैतिक मूल्यों को दर्शाती हैं।

कुचिपुड़ी और सामाजिक प्रभाव

Kuchipudi ने न केवल धार्मिक चेतना जगाई है, बल्कि समाज को भी जागरूक किया है:

यह जातिवाद के विरुद्ध आवाज बनी।

महिलाओं के अधिकारों की प्रस्तुति भी कई बार इन नाटकों में दिखी।

ग्रामीण और शहरी समाज के बीच सांस्कृतिक सेतु बना।

पुरस्कार और सम्मान

Kuchipudi नृत्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले कलाकारों को भारत सरकार द्वारा कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है:

पद्म विभूषण – यामिनी कृष्णमूर्ति

पद्म भूषण – वेम्पति चिन्ना सत्यम्

पद्म श्री, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार आदि

यह दर्शाता है कि यह कला कितनी समृद्ध और गर्व करने योग्य है।

नई पीढ़ी और कुचिपुड़ी

आज के युवाओं के बीच फिर से शास्त्रीय नृत्य का आकर्षण बढ़ रहा है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे YouTube, Instagram आदि पर Kuchipudi की प्रस्तुतियाँ अपार लोकप्रियता पा रही हैं। भारत ही नहीं, विदेशों में बसे भारतीय भी इसे गर्व से सीख रहे हैं और प्रस्तुत कर रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रभाव

Kuchipudi को UNESCO द्वारा संरक्षित सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी मान्यता मिली है।

कई विदेशी छात्र भारत आकर इस नृत्य को सीखते हैं।

भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) और विदेश मंत्रालय इस कला को विश्व मंचों पर प्रदर्शित करवाने में सहायक हैं।

कुचिपुड़ी में संगीत का महत्व

Kuchipudi में संगीत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नृत्य और अभिनय का आधार बनता है। यह संगीत मुख्यतः कर्नाटक संगीत पर आधारित होता है। इसकी विशेषताएँ हैं:

1. राग और ताल का सामंजस्य:

नृत्य प्रस्तुति में प्रयुक्त राग गहरे भाव व्यक्त करते हैं। जैसे – यमन, भैरवी, तोड़ी आदि। ताल की जटिलताएँ जैसे आदि ताल, रूपक ताल, मिश्रा चापू आदि रचनाओं को जीवंत बनाते हैं।

2. गायन की भूमिका:

Kuchipudi में गायक और वादक मंच पर साथ होते हैं। कई बार नर्तक भी स्वयं संवाद बोलते हैं या गाते हैं – जो इसे विशिष्ट बनाता है।

3. वाद्य यंत्रों का उपयोग:

मृदंगम – प्रमुख ताल वाद्य

वीणा – मधुरता का स्पर्श

वायलिन – भावनाओं की गहराई

फ्लूट (बांसुरी) – भगवान कृष्ण के लीलाओं की मधुरता

नृत्य की वेशभूषा और आभूषण

Kuchipudi में वेशभूषा न केवल सौंदर्य का प्रतीक होती है, बल्कि चरित्र और कथा की व्याख्या भी करती है।

1. महिला नर्तक की वेशभूषा:

सिल्क की साड़ी जो विशेष रूप से नृत्य के लिए डिज़ाइन की जाती है।

कमरबंध, चूड़ियाँ, बाजूबंद, झुमके और जड़ाऊ आभूषण।

माथे पर बिंदी और श्रृंगार जिसे ‘नाट्य श्रृंगार’ कहा जाता है।

2. पुरुष नर्तक की पोशाक:

धोती, अंगवस्त्र और कंधे पर दुपट्टा।

साधारण आभूषण, परंतु शौर्य और भक्ति दर्शाने वाले भाव।

मुख्य प्रस्तुतियाँ और नृत्य शैलियाँ

प्रमुख प्रस्तुतियाँ:

1. भगवतमेला नाट्यकला – भगवान विष्णु की कथाओं पर आधारित।

2. भामाकलापम् – सती भामा और श्रीकृष्ण की लीला।

3. गीता गोविन्दम् – जयदेव कृत रचनाओं पर आधारित।

4. रामायण नृत्य नाटिका – राम के जीवन प्रसंग।

नृत्य शैलियाँ:

नाट्य रूप (Dance-Drama Form) – संवाद और अभिनय के साथ नृत्य।

एकल नृत्य (Solo Form) – आज के समय में अधिक प्रचलित।

गुरु शिष्य परंपरा शैली – पारंपरिक गाँव की शैली जो मौखिक परंपरा से आगे बढ़ती है।

महत्वपूर्ण कथाएँ जो कुचिपुड़ी में दर्शाई जाती हैं

1. कृष्ण लीला – माखन चोरी, रासलीला, कालिया नाग मर्दन।

2. रामायण प्रसंग – सीता हरण, राम का वनवास, युद्ध प्रसंग।

3. महाभारत प्रसंग – द्रौपदी चीरहरण, अर्जुन का पशुपतास्त्र प्राप्ति।

4. श्रीमद्भागवत पुराण – प्रह्लाद चरित्र, ध्रुव कथा।

इन कथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा, भक्ति भाव और सांस्कृतिक ज्ञान भी प्रस्तुत होता है।

विदेशों में कुचिपुड़ी की लोकप्रियता

Kuchipudi ने भारत की सीमाओं को पार करते हुए अमेरिका, यूके, रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया, आदि देशों में अपना प्रभाव जमाया है। कई देशों में भारतीय मिशनों द्वारा Kuchipudi प्रशिक्षण शिविर और सांस्कृतिक उत्सव आयोजित किए जाते हैं।

विदेशी छात्रों में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है क्योंकि:

यह योग और ध्यान से जुड़ा हुआ है।

भारतीय संस्कृति का जीवंत स्वरूप है।

इसमें आत्मा की अभिव्यक्ति और नारी शक्ति का सम्मान है।

सरकार द्वारा संरक्षण और प्रोत्साहन

भारत सरकार और राज्य सरकारें विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इस कला को प्रोत्साहित कर रही हैं:

  1. संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप
  2. गुरु शिष्य परंपरा के लिए अनुदान
  3. यूनिवर्सिटी पाठ्यक्रमों में शामिल करना
  4. राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुतियाँ

भविष्य की राह

अगर हमें Kuchipudi जैसे विरासत को जीवित रखना है, तो हमें करना होगा:

  1. शिक्षा प्रणाली में इसकी सक्रिय भागीदारी।
  2. सरकारी सहायता और अनुदान।
  3. स्थानीय कलाकारों को मंच और सम्मान।
  4. डिजिटल माध्यमों पर प्रचार-प्रसार।

निष्कर्ष: कुचिपुड़ी – एक अमर धरोहर

कुचिपुड़ी नृत्य केवल एक कला नहीं, संस्कृति, भक्ति और आत्मा का प्रदर्शन है। इसमें न केवल भावनाएँ होती हैं, बल्कि जीवन का दर्शन भी समाहित होता है। यह भारत की समृद्ध परंपरा का प्रतीक है, जिसे हमें संजोना और अगली पीढ़ियों को सौंपना आवश्यक है।


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Sanjeev

Hello! Welcome To About me My name is Sanjeev Kumar Sanya. I have completed my BCA and MCA degrees in education. My keen interest in technology and the digital world inspired me to start this website, “Aajvani.com.”

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