टोड़ा जनजाति की पवित्र परंपरा: नीलगिरि के मंदिरों में मंड घास से पुनः थैचिंग का अनोखा अनुष्ठान!

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टोड़ा जनजाति का पवित्र त्योहार: नीलगिरि में दुर्लभ घास से मंदिरों का पुनर्निर्माण कैसे होता है?

भूमिका: पहाड़ों की गोद में बसी एक अनोखी सभ्यता

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दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में स्थित नीलगिरि पहाड़ियों (The Nilgiris) में “टोड़ा जनजाति” (Toda Tribe) का वास है। यह जनजाति आज भी अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों और जीवनशैली को सहेज कर रखे हुए है।

टोड़ा जनजाति की सांस्कृतिक धरोहर का सबसे प्रमुख हिस्सा हैं उनके “पवित्र डेरी (temples)” — जिनकी रिथैचिंग (Re-thatching) की प्रक्रिया विशेष प्रकार की दुर्लभ घास से की जाती है।

इस अनूठी परंपरा को न सिर्फ सांस्कृतिक दृष्टि से बल्कि जैव विविधता (Biodiversity) के संरक्षण के नजरिए से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

टोड़ा जनजाति की पवित्र परंपरा: नीलगिरि के मंदिरों में मंड घास से पुनः थैचिंग का अनोखा अनुष्ठान!
टोड़ा जनजाति की पवित्र परंपरा: नीलगिरि के मंदिरों में मंड घास से पुनः थैचिंग का अनोखा अनुष्ठान!

टोड़ा जनजाति: परिचय

टोड़ा जनजाति (Toda Tribe) एक पशुपालक समुदाय है, जो खासतौर पर भैंस पालन (Buffalo rearing) के लिए जाना जाता है। इनकी भाषा “टोडा” (Toda) है, जो द्रविड़ परिवार से संबंधित है, लेकिन तमिल से काफी अलग है।

टोड़ा जनजाति अपनी विशिष्ट जीवनशैली, सफेद पोशाकों, जटिल कढ़ाई वाले वस्त्रों (Toda Embroidery) और पवित्र डेरी (मंदिर) के लिए विख्यात हैं।

टोड़ा जनजाति की संस्कृति इतनी विशिष्ट है कि UNESCO ने “Toda Embroidery” और इनके “Sacred Landscapes” को भी संरक्षण योग्य घोषित किया है।

टोड़ा डेरी (Toda Dairy Temple): आस्था का प्रतीक

टोड़ा जनजाति के जीवन में डेरी (Dairy Temple) का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह केवल दूध उत्पादों के संग्रहण या पूजा का स्थान नहीं, बल्कि एक पवित्र स्थल होता है। टोड़ा जनजाति भैंसों को “पवित्र जीव” मानते हैं और उनके दूध से बनी चीजों को देवताओं को अर्पित करते हैं।

डेरी मंदिर छोटे, छत्राकार (semi-barrel shaped) संरचनाएं होती हैं। इनका प्रवेश द्वार बहुत छोटा होता है, ताकि अंदर सिर झुकाकर प्रवेश करना पड़े — श्रद्धा का प्रतीक।

इन डेरी मंदिरों की एक खास बात यह है कि इन्हें एक खास प्रकार की दुर्लभ घास से रिथैच किया जाता है।

रिथैचिंग: परंपरा और पर्यावरण का संगम

क्यों होता है रिथैचिंग?

समय के साथ घास की छतें सड़ने, कमजोर होने लगती हैं।

पवित्रता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए समय-समय पर इन मंदिरों की छतों को फिर से छाना (Re-thatching) अनिवार्य होता है।

टोड़ा जनजाति इसे धार्मिक अनुष्ठान के रूप में निभाता है, न कि केवल एक मरम्मत कार्य के तौर पर।

कब होता है रिथैचिंग?

आमतौर पर हर 5 से 10 वर्षों में एक बार।

यह कार्य विशेष अवसरों पर, विशेष शुभ मुहूर्त देखकर किया जाता है।

रिथैचिंग से पहले एक लंबी श्रृंखला पूजा और अनुष्ठानों की होती है।

दुर्लभ घास: “Andropogon polyptychos” — देवताओं की घास

टोड़ा जनजाति एक विशेष प्रकार की घास का उपयोग करते हैं जिसे स्थानीय रूप में “Mund” या वैज्ञानिक नाम से “Andropogon polyptychos” कहा जाता है।

इस घास की विशेषताएं:

अत्यधिक टिकाऊ

जलरोधक (Water-resistant)

फफूंदी और कीटों के प्रति प्रतिरोधक

सौंदर्यपूर्ण और प्राकृतिक

क्यों है यह घास दुर्लभ?

नीलगिरि में शहरीकरण, कृषि और पर्यटन के चलते यह घास तेजी से घट रही है।

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) और बदलती बारिश की प्रवृत्तियों ने इसके प्राकृतिक आवास को प्रभावित किया है।

इस घास की कटाई, संग्रहण और सुरक्षित रखना भी एक कठिन कार्य है।

रिथैचिंग की प्रक्रिया: एक पवित्र अनुष्ठान

रिथैचिंग केवल एक निर्माण कार्य नहीं है; यह टोड़ा संस्कृति में एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह संपन्न होता है।

प्रक्रिया:

1. घास का संग्रहण:

केवल विशिष्ट पुरुष सदस्य (Priestly Clan) इस घास को चुनते और काटते हैं।

काटी गई घास को बड़े सम्मान और पूजा के साथ एकत्रित किया जाता है।

2. तैयारी:

पुरानी घास को धीरे-धीरे हटाया जाता है।

मंदिर को साफ किया जाता है।

भूमि पर विशेष मंत्रोच्चारण के साथ पवित्रता स्थापित की जाती है।

3. घास बिछाना:

नई घास को पारंपरिक पद्धति से बिना किसी मशीनरी के हाथों से छत पर बिछाया जाता है।

पूरी प्रक्रिया के दौरान धार्मिक गीत, मंत्र और पारंपरिक भैंसों के गायन होते रहते हैं।

4. समापन समारोह:

रिथैचिंग पूरा होने के बाद, भैंसों का जुलूस निकाला जाता है।

दूध का सामूहिक भोग अर्पित किया जाता है।

पूरे समुदाय के लिए भोज (communal feast) का आयोजन होता है।

टोड़ा जनजाति की पवित्र परंपरा: नीलगिरि के मंदिरों में मंड घास से पुनः थैचिंग का अनोखा अनुष्ठान!
टोड़ा जनजाति की पवित्र परंपरा: नीलगिरि के मंदिरों में मंड घास से पुनः थैचिंग का अनोखा अनुष्ठान!

सांस्कृतिक महत्व: आस्था से जुड़ी परंपराएँ

टोड़ा लोग मानते हैं कि पवित्र डेरी ही उनके पूर्वजों और देवताओं का वास स्थान है। यदि इन मंदिरों की सही तरीके से देखभाल न की जाए, तो प्राकृतिक आपदाएँ और बीमारियाँ समुदाय को प्रभावित कर सकती हैं।

रिथैचिंग का उद्देश्य:

देवताओं को प्रसन्न करना

प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखना

सामाजिक एकता को मजबूत करना

युवा पीढ़ी में परंपरा की शिक्षा देना

आधुनिक समय में चुनौतियाँ

आज के समय में टोड़ा जनजाति अपनी इस परंपरा को निभाते हुए कई चुनौतियों का सामना कर रहा है:

1. दुर्लभ घास की कमी:

वनों की कटाई (Deforestation) और कृषि विस्तार ने घास के प्राकृतिक क्षेत्र नष्ट कर दिए हैं।

2. जलवायु परिवर्तन:

असामान्य बारिश और सूखे ने घास की उपलब्धता को और कठिन बना दिया है।

3. आर्थिक दबाव:

युवा पीढ़ी शहरों में नौकरी की तलाश में जा रही है, जिससे पारंपरिक ज्ञान और श्रमशक्ति में कमी हो रही है।

4. संरक्षण की कमी:

सरकारी स्तर पर पारंपरिक ज्ञान और रिवाजों को सहेजने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए हैं।

हालिया अपडेट (2024-2025):

1. घास के संरक्षण के लिए नई पहल:

2024 में नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व (NBR) के तहत एक नई पहल शुरू की गई, जिसमें “Andropogon polyptychos” घास के प्राकृतिक क्षेत्रों का पुनरुद्धार करने का कार्यक्रम चलाया जा रहा है। टोड़ा जनजाति के बुजुर्गों और युवाओं को साथ लेकर सामूहिक रोपण अभियान चलाए जा रहे हैं।

2. यूनेस्को (UNESCO) का सहयोग:

यूनेस्को ने 2025 में ‘Indigenous Cultural Landscapes’ परियोजना के तहत टोड़ा लोगों के डेरी टेम्पल्स और उनकी रीथैचिंग परंपरा को संरक्षण सूची में शामिल किया है, जिससे इनकी सुरक्षा और पुनरुद्धार के प्रयासों को वैश्विक स्तर पर समर्थन मिला है।

3. शिक्षा और प्रशिक्षण:

टोड़ा युवाओं के लिए विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जा रहे हैं ताकि वे रिथैचिंग तकनीक और घास प्रबंधन को आधुनिक तरीकों के साथ जोड़कर सीख सकें।

संरक्षण और सामुदायिक भागीदारी

टोड़ा जनजाति का यह अनूठा परंपरागत ज्ञान केवल उनकी संस्कृति तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए सीखने योग्य है कि कैसे हम प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर अपने धार्मिक और सामाजिक ढांचे को सहेज सकते हैं।

संरक्षण के लिए जरूरी कदम:

स्थानीय घास प्रजातियों का वैज्ञानिक संरक्षण।

सरकारी और गैर-सरकारी सहयोग से परियोजनाएं।

टोड़ा युवाओं में जागरूकता और गर्व का भाव भरना।

पर्यटन को सतत (sustainable) बनाना ताकि पारंपरिक स्थलों का क्षरण न हो।

टोड़ा जनजाति और प्रकृति के बीच संबंध

टोड़ा जनजाति के लिए प्रकृति केवल जीवन का साधन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साथी है। उनके जीवन के हर पहलू — भोजन, वस्त्र, आवास, पर्व, संगीत — प्रकृति से गहराई से जुड़े हुए हैं।

उनके पवित्र स्थलों (Sacred Sites), विशेषकर डेरी मंदिरों के आस-पास, विशिष्ट पौधों, जल स्रोतों और घास के मैदानों का संरक्षण किया जाता है। टोड़ा लोग मानते हैं कि प्रत्येक प्राकृतिक तत्व में आत्मा होती है जिसे सम्मान देना आवश्यक है।

टोड़ा धार्मिक विश्वास और डेरी मंदिरों की भूमिका

टोड़ा धर्म में भैंस (Buffalo) को देवताओं से भी ऊंचा स्थान प्राप्त है।

टोड़ा जनजाति की पूजा पद्धति मुख्यतः डेरी मंदिरों के माध्यम से संचालित होती है। हर डेरी मंदिर का एक विशेष पुरोहित होता है, जिसे “Palol” कहा जाता है, और केवल वही मंदिर के अंदर पूजा कर सकता है।

डेरी मंदिरों में मुख्य अनुष्ठान:

भैंसों का दूध अर्पण करना

भैंसों का विशेष जुलूस निकालना

वार्षिक तीर्थ यात्रा (Annual Pilgrimage)

भैंसों की पूजा के समय पारंपरिक गीत गाना

इन सभी अनुष्ठानों के दौरान, डेरी मंदिर की संरचना को पूर्णतः पवित्र और शुद्ध रखा जाता है। इसलिए रिथैचिंग को भी एक बड़ा धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है।

पारंपरिक निर्माण तकनीक: एक जीवित वास्तुकला

टोड़ा डेरी मंदिरों का निर्माण किसी भी आधुनिक तकनीक से नहीं होता। यह पूरी तरह से जैविक और प्राकृतिक सामग्री से किया जाता है।

निर्माण की विशेषताएँ:

मुख्य ढांचा पत्थरों से बनाया जाता है।

लकड़ी की पतली बीमों का उपयोग आंतरिक ढांचे के लिए होता है।

दीवारें मिट्टी और गाय के गोबर के मिश्रण से लेपित होती हैं।

छत दुर्लभ घास (Mund Grass) से छाई जाती है।

वास्तुशास्त्र में गूढ़ विज्ञान:

गोलाकार आकृति बारिश के पानी के प्रवाह को नियंत्रित करती है।

नुकीली छतें वायु प्रवाह को संतुलित रखती हैं।

छोटी खिड़कियाँ अंदरूनी तापमान को स्थिर बनाए रखती हैं।

यह पारंपरिक वास्तुशैली न केवल सुंदर है, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) भी है।

टोड़ा संस्कृति में घास का महत्व

“मंड घास” या “Mund Grass” केवल एक निर्माण सामग्री नहीं है, बल्कि टोड़ा संस्कृति का अभिन्न अंग है।

टोड़ा मानते हैं कि:

यह घास स्वयं प्रकृति देवी का अवतार है।

बिना शुद्ध भाव और धार्मिक विधि के इसे काटना या प्रयोग करना वर्जित है।

अगर गलत तरीके से उपयोग किया जाए तो देवताओं का प्रकोप आ सकता है।

इसलिए घास की कटाई, परिवहन और रिथैचिंग एक पूर्ण धार्मिक अनुशासन के साथ किया जाता है।

महिलाओं की भूमिका

हालांकि टोड़ा जनजाति पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक है, परंतु महिलाओं की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
रिथैचिंग के दौरान:

महिलाएँ धार्मिक गीत गाती हैं।

विशेष प्रकार के वस्त्र (Toda Embroidered Shawls) पहनकर समारोह में भाग लेती हैं।

भोजन, पूजा सामग्री और सामुदायिक भोज का प्रबंध करती हैं।

टोड़ा कढ़ाई (Toda Embroidery) भी इसी सांस्कृतिक समारोह का एक भाग है, जो UNESCO की Intangible Cultural Heritage सूची में शामिल है।

युवा पीढ़ी और बदलता समय

समय के साथ टोड़ा युवाओं में भी जीवनशैली में बदलाव आया है।
बहुत से युवा:

शिक्षा और रोजगार के लिए ऊटी (Ooty), कोयम्बटूर (Coimbatore), बेंगलुरु जैसे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

अंग्रेजी और तमिल जैसी मुख्यधारा भाषाएँ अधिक बोल रहे हैं।

पारंपरिक अनुष्ठानों और रीतियों से थोड़ा दूर हो रहे हैं।

हालांकि हाल के वर्षों में जागरूकता अभियान और सांस्कृतिक संरक्षण कार्यक्रमों के चलते युवा पीढ़ी पुनः अपनी जड़ों की ओर लौट रही है।

पर्यावरणीय संकट: नीलगिरि की घास के मैदानों का क्षरण

नीलगिरि का शोलास और घास के मैदानों (Shola Grasslands) को “Biodiversity Hotspot” घोषित किया गया है।
लेकिन पिछले कुछ दशकों में:

चाय बागानों (Tea Plantations) का विस्तार

विदेशी पेड़ों जैसे नीलगिरी (Eucalyptus) और वट्टल (Wattle) के रोपण

बढ़ती पर्यटन गतिविधियाँ

के कारण मूल घास के मैदान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

इससे न केवल टोड़ा मंदिरों की रिथैचिंग के लिए जरूरी घास की आपूर्ति घट गई है, बल्कि पूरी पारिस्थितिकी प्रणाली (Ecosystem) खतरे में आ गई है।

संरक्षण के प्रयास: वर्तमान और भविष्य

नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व (NBR), स्थानीय प्रशासन और स्वयंसेवी संगठनों ने टोड़ा समुदाय के साथ मिलकर कई संरक्षण योजनाएँ शुरू की हैं:

पारंपरिक घास प्रजातियों का पुनर्वास (Grassland Restoration)

टोड़ा सांस्कृतिक विरासत संरक्षण कार्यक्रम (Toda Cultural Heritage Conservation Program)

पर्यावरणीय शिक्षा कार्यक्रम (Environmental Education Programs)

इसके साथ ही, अंतरराष्ट्रीय मंचों जैसे UNESCO, UNDP द्वारा भी वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की जा रही है।

पर्यटन और उसकी चुनौतियाँ

हालाँकि पर्यटन नीलगिरि क्षेत्र के लिए आय का एक बड़ा स्रोत है, लेकिन अनियंत्रित पर्यटन:

पारंपरिक स्थलों का क्षरण करता है।

सांस्कृतिक प्रदूषण लाता है।

स्थानीय समुदायों पर दबाव बढ़ाता है।

इसलिए “सतत पर्यटन” (Sustainable Tourism) की आवश्यकता है, जिसमें:

सीमित संख्या में पर्यटकों को प्रवेश

पर्यावरण और संस्कृति के प्रति जागरूकता बढ़ाना

समुदाय आधारित पर्यटन मॉडल को बढ़ावा देना

शामिल होना चाहिए।

निष्कर्ष

नीलगिरि की वादियों में बसे टोड़ा जनजाति की पवित्र मंदिरों को दुर्लभ घास से रिथैच करने की परंपरा न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि प्रकृति और संस्कृति के अद्भुत संतुलन का प्रतीक है। आधुनिक युग की चुनौतियों के बावजूद, यह परंपरा आज भी जीवित है और विश्व समुदाय के लिए एक प्रेरणा है।

यदि हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस जीवंत धरोहर का अनुभव कर सकें, तो हमें आज ही संरक्षण, जागरूकता और समुदाय के समर्थन की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।

टोड़ा जनजाति के मंदिरों की यह अनूठी परंपरा एक पुकार है — कि प्रकृति का आदर करें, अपनी जड़ों को याद रखें और अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेज कर रखें।


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Hello! Welcome To About me My name is Sanjeev Kumar Sanya. I have completed my BCA and MCA degrees in education. My keen interest in technology and the digital world inspired me to start this website, “Aajvani.com.”

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