क्या आप जानते हैं? भारतीय रिज़र्व बैंक की नींव डॉ. अंबेडकर के विचारों पर टिकी है!
डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनकी भूमिका केवल कानून और सामाजिक न्याय तक सीमित नहीं थी। वे एक उत्कृष्ट अर्थशास्त्री भी थे और भारत की मौद्रिक नीतियों को आकार देने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। खासतौर पर, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की स्थापना में उनके विचारों का गहरा प्रभाव था।
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Toggleरुपये की समस्या और डॉ. अंबेडकर की आर्थिक सोच
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की मुद्रा व्यवस्था में कई खामियां थीं। रुपये की अस्थिरता और मौद्रिक नीतियों में विदेशी नियंत्रण ने देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया था।
इस समस्या को समझने और उसका समाधान सुझाने के लिए डॉ. अंबेडकर ने 1923 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी – “The Problem of the Rupee: Its Origin & Its Solution” (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और समाधान)।
इस पुस्तक में उन्होंने भारत की मौद्रिक प्रणाली की गहन समीक्षा की और यह बताया कि देश को एक स्वतंत्र और मजबूत केंद्रीय बैंक की जरूरत है। उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई “सिल्वर करेंसी सिस्टम” की आलोचना की और भारत के लिए एक सुव्यवस्थित “गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड” का सुझाव दिया।
हिल्टन यंग कमीशन पर प्रभाव
1926 में ब्रिटिश सरकार ने हिल्टन यंग कमीशन (Hilton Young Commission) का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के लिए एक स्थिर और प्रभावी मौद्रिक प्रणाली विकसित करना था। जब इस कमीशन ने डॉ. अंबेडकर की पुस्तक का अध्ययन किया, तो उनके विचारों को काफी प्रभावशाली पाया।
अंबेडकर ने इस पुस्तक में यह तर्क दिया था कि भारत को एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक की जरूरत है, जो देश की मौद्रिक नीति को नियंत्रित करे और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करे। हिल्टन यंग कमीशन ने अंबेडकर के सुझावों को स्वीकार किया और अपनी सिफारिशों में इसे शामिल किया।
भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना
इन सिफारिशों के आधार पर, 1934 में भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम (Reserve Bank of India Act) पारित हुआ और 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई। हालांकि, डॉ. अंबेडकर को इस बैंक के संचालन में सीधे तौर पर शामिल नहीं किया गया, लेकिन इसकी मूल नीतियों में उनके विचारों का गहरा प्रभाव था।
अंबेडकर की आर्थिक दृष्टि और उनका योगदान
डॉ. अंबेडकर न केवल एक सामाजिक सुधारक थे, बल्कि एक प्रखर आर्थिक विचारक भी थे। उनकी सोच भारत की वित्तीय और बैंकिंग प्रणाली की नींव रखने में सहायक बनी। उनका मानना था कि भारत को अपनी मुद्रा और बैंकिंग नीतियों पर नियंत्रण रखना चाहिए, ताकि देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सके।
आज भी उनकी पुस्तक “The Problem of the Rupee” को भारतीय अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। यह अंबेडकर की व्यापक दृष्टि और दूरदर्शिता को दर्शाता है, जिसने न केवल सामाजिक न्याय बल्कि आर्थिक सशक्तिकरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ. अंबेडकर की मौद्रिक नीतियों की प्रासंगिकता
डॉ. भीमराव अंबेडकर की आर्थिक नीतियां और उनके विचार केवल उनके समय तक सीमित नहीं थे, बल्कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने भारत में एक स्वतंत्र और सशक्त वित्तीय प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दिया था। उनकी पुस्तक “The Problem of the Rupee” में प्रस्तुत विचारों का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर लंबे समय तक पड़ा।
आर्थिक असमानता और बैंकिंग सुधार
अंबेडकर का मानना था कि यदि भारत को आत्मनिर्भर बनाना है, तो उसे अपनी बैंकिंग व्यवस्था और मौद्रिक नीति पर पूर्ण नियंत्रण रखना होगा। उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि गरीब और कमजोर वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाई जाएं, ताकि आर्थिक असमानता को कम किया जा सके।
आज हम जिस “इन्क्लूसिव बैंकिंग” (समावेशी बैंकिंग) और वित्तीय सशक्तिकरण की बात करते हैं, उसकी जड़ें अंबेडकर की आर्थिक नीतियों में देखी जा सकती हैं।
रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता और अंबेडकर का दृष्टिकोण
डॉ. अंबेडकर ने सुझाव दिया था कि भारतीय रिज़र्व बैंक को किसी भी बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाए और उसे पूरी स्वायत्तता (Autonomy) दी जाए, ताकि वह स्वतंत्र रूप से मौद्रिक नीतियों का निर्धारण कर सके।
हालांकि, समय-समय पर आरबीआई की स्वायत्तता को लेकर सरकार और बैंक के बीच टकराव देखने को मिला है। लेकिन यह स्पष्ट है कि यदि अंबेडकर के विचारों को पूरी तरह से लागू किया जाता, तो भारतीय बैंकिंग व्यवस्था और भी मजबूत हो सकती थी।

आधुनिक बैंकिंग नीतियों पर अंबेडकर का प्रभाव
आज भारत में जो मुद्रास्फीति नियंत्रण (Inflation Control), क्रेडिट पॉलिसी (Credit Policy) और वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) जैसी नीतियां अपनाई जा रही हैं, वे काफी हद तक अंबेडकर के विचारों से मेल खाती हैं। उन्होंने भारत में स्थिर मुद्रा प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दिया था, जो आज भारतीय रिज़र्व बैंक की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
डॉ. अंबेडकर की आर्थिक सोच और आज का भारत
डॉ. भीमराव अंबेडकर की आर्थिक नीतियों और विचारों का प्रभाव आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था में देखा जा सकता है। उन्होंने जिस स्वतंत्र मौद्रिक नीति, वित्तीय समावेशन और आर्थिक सशक्तिकरण की कल्पना की थी, वह आधुनिक भारत में कई सरकारी योजनाओं और आरबीआई की नीतियों के रूप में साकार होती दिखती है।
1. वित्तीय समावेशन और जनधन योजना
डॉ. अंबेडकर का मानना था कि यदि गरीब और वंचित वर्गों को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लाना है, तो बैंकिंग सेवाओं की पहुंच सभी तक होनी चाहिए। आज सरकार की प्रधानमंत्री जनधन योजना, डिजिटल पेमेंट सिस्टम और सूक्ष्म वित्त (Microfinance) योजनाएं उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रही हैं।
2. आरबीआई की मौद्रिक नीतियां और स्थिरता
डॉ. अंबेडकर ने मुद्रास्फीति नियंत्रण (Inflation Control) और मुद्रा स्थिरता (Currency Stability) को भारतीय रिज़र्व बैंक की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बताया था।
आज, आरबीआई की नीतियां उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर काम कर रही हैं। रेपो रेट, कैश रिजर्व रेशियो (CRR) और स्टैच्यूटरी लिक्विडिटी रेशियो (SLR) जैसी नीतियां अर्थव्यवस्था को संतुलित रखने में मदद कर रही हैं।
3. आरबीआई की स्वायत्तता का सवाल
डॉ. अंबेडकर का स्पष्ट मत था कि भारतीय रिज़र्व बैंक को सरकार के नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए और उसे स्वतंत्र रूप से कार्य करने की स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
हालांकि, समय-समय पर आरबीआई की स्वायत्तता को लेकर बहस होती रही है। वर्तमान में भी, सरकार और आरबीआई के बीच नीतिगत मतभेद सामने आते रहते हैं, जो अंबेडकर की उस दूरदर्शिता को दर्शाता है कि एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक क्यों आवश्यक है।
**डॉ. अंबेडकर की आर्थिक दृष्टि से हमें क्या सीख

डॉ. अंबेडकर की आर्थिक दृष्टि से हमें क्या सीखना चाहिए?
डॉ. भीमराव अंबेडकर की आर्थिक सोच केवल उनके समय तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह भविष्य के लिए भी एक मार्गदर्शक बनी। उनकी विचारधारा हमें बताती है कि किसी भी देश की आर्थिक मजबूती के लिए स्वतंत्र मौद्रिक नीति, वित्तीय समावेशन और न्यायसंगत आर्थिक विकास आवश्यक हैं।
1. स्वायत्त और पारदर्शी वित्तीय प्रणाली
डॉ. अंबेडकर ने ज़ोर दिया था कि देश की वित्तीय संस्थाएं, विशेषकर रिज़र्व बैंक, सरकार से स्वतंत्र होकर कार्य करें। इससे आर्थिक निर्णय राजनीति से प्रभावित नहीं होंगे और दीर्घकालिक विकास संभव होगा। आज भी यह एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है, क्योंकि केंद्रीय बैंक की नीतियों में सरकार का हस्तक्षेप अक्सर चर्चा का विषय बनता है।
2. गरीब और वंचित वर्गों का आर्थिक सशक्तिकरण
अंबेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण सिर्फ बड़े उद्योगों तक सीमित नहीं था। वे चाहते थे कि गरीबों और वंचितों तक बैंकिंग सुविधाएं पहुंचे। उन्होंने ज़मीन सुधार, कृषि अर्थव्यवस्था और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की वकालत की। वर्तमान में सरकार की मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल बैंकिंग और लघु उद्योग समर्थन योजनाएं उनकी इसी सोच का विस्तार हैं।
3. मुद्रास्फीति और आर्थिक स्थिरता
डॉ. अंबेडकर ने चेताया था कि अगर देश में मुद्रास्फीति (Inflation) अनियंत्रित हो गई, तो इसका सबसे अधिक नुकसान गरीबों और मध्यम वर्ग को होगा। इसी वजह से भारतीय रिज़र्व बैंक समय-समय पर रेपो रेट और अन्य मौद्रिक उपायों के ज़रिए महंगाई को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
4. शिक्षा और कौशल विकास का महत्व
Dr. Ambedkar मानते थे कि आर्थिक समानता तब तक संभव नहीं है जब तक सभी को समान शिक्षा और रोजगार के अवसर नहीं मिलते। उन्होंने तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर ज़ोर दिया। आज सरकार की स्किल इंडिया योजना, डिजिटल इंडिया मिशन और तकनीकी शिक्षा सुधार कार्यक्रम इसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं।
निष्कर्ष
डॉ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ एक समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी अर्थशास्त्री भी थे। उनकी पुस्तक “The Problem of the Rupee” ने भारतीय मौद्रिक प्रणाली को एक ठोस दिशा दी और उनकी सिफारिशों के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई। उनकी आर्थिक सोच ने भारत को एक स्वतंत्र, स्वायत्त और मजबूत वित्तीय प्रणाली की ओर अग्रसर किया।
आज, जब हम भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर और समावेशी बनाने की बात करते हैं, तो हमें अंबेडकर की उन नीतियों को याद करना चाहिए, जिन्होंने भारत की वित्तीय व्यवस्था की नींव रखी। उनका योगदान न केवल इतिहास का हिस्सा है, बल्कि आज भी आर्थिक विकास की दिशा में मार्गदर्शक बना हुआ है।
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