समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान में जोड़ने की मांग पर संविधान सभा में क्या हुआ?
भूमिका: संविधान का निर्माण – केवल एक दस्तावेज नहीं, एक राष्ट्रीय आत्मा
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Toggleभारतीय संविधान केवल कानूनों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह हमारे राष्ट्र के आदर्शों, मूल्यों और आत्मा को दर्शाता है। संविधान सभा में जब इसकी रचना हो रही थी, तब हर एक अनुच्छेद, हर एक शब्द पर गहन चर्चा हुई। खासकर “धर्मनिरपेक्ष” (Secular) और “समाजवादी” (Socialist) जैसे शब्दों को लेकर बहस ऐतिहासिक और विचारोत्तेजक रही।

15 नवंबर 1948: जब प्रो. के.टी. शाह ने उठाया “धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी” का प्रस्ताव
15 नवंबर 1948 को संविधान सभा में प्रोफेसर के.टी. शाह ने प्रस्ताव रखा कि संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को स्पष्ट रूप से जोड़ा जाए। उनका तर्क था कि ये दो शब्द भारतीय गणराज्य की आत्मा और दृष्टिकोण को स्पष्ट करेंगे।
प्रोफेसर के.टी. शाह कौन थे?
अर्थशास्त्री और संविधानविद्
कांग्रेस के सदस्य नहीं थे, स्वतंत्र विचारक थे
समाजवाद के प्रबल समर्थक
मानव अधिकारों और सामाजिक न्याय के पक्षधर
प्रो. शाह के तर्क: क्यों जरूरी थे ये शब्द?
धर्मनिरपेक्षता का स्पष्ट उल्लेख आवश्यक है – भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। सरकार को किसी एक धर्म का समर्थन नहीं करना चाहिए।
समाजवाद से सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित होगा – ताकि संसाधनों का न्यायसंगत वितरण हो।
राज्य की विचारधारा स्पष्ट होगी – इससे नागरिकों को नीति की दिशा समझ आएगी।
डॉ. अंबेडकर का विरोध: क्यों किया प्रस्ताव अस्वीकार?
डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनका जवाब ऐतिहासिक था।
डॉ. अंबेडकर का तर्क:
“राज्य को किसी विशेष आर्थिक या धार्मिक विचारधारा से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। ऐसा करना लोकतंत्र के विपरीत होगा।”
प्रमुख बिंदु:
संविधान को विचारधारा-मुक्त रखना चाहिए – ताकि भविष्य की संसद अपनी सामाजिक-आर्थिक नीति तय कर सके।
जनता को स्वतंत्रता हो – वह चाहे तो समाजवाद लाए, चाहे पूंजीवाद अपनाए।
राजनीतिक लोकतंत्र को वैचारिक लचीलापन चाहिए – ताकि बहस और परिवर्तन की गुंजाइश बनी रहे।
संविधान सभा में बहस का स्वरूप
संविधान सभा में यह मुद्दा बहुत गंभीरता से लिया गया। बहस के दौरान पक्ष और विपक्ष में कई सदस्य बोले।
पक्ष में प्रमुख वक्ता:
प्रो. के.टी. शाह
श्रीमती दुर्गा बाई देशमुख
श्री हरिनाथ शास्त्री
विपक्ष में प्रमुख वक्ता:
डॉ. भीमराव अंबेडकर
पं. जवाहरलाल नेहरू (अप्रत्यक्ष रूप से)
अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर
नेहरू का दृष्टिकोण: व्यवहारिक धर्मनिरपेक्षता
पं. नेहरू “धर्मनिरपेक्षता” के समर्थक थे, लेकिन वे चाहते थे कि यह शब्द व्यवहार में झलके, न कि केवल शब्दों में। उनका मानना था कि:
“भारत धर्मनिरपेक्ष रहेगा, यह उसकी आत्मा है। लेकिन इसे थोपने की नहीं, निभाने की जरूरत है।”
प्रस्ताव अस्वीकृति के परिणाम
अंततः संविधान सभा ने प्रो. के.टी. शाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। संविधान की मूल प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द शामिल नहीं किए गए।
कारण:
विचारधारा की स्वतंत्रता बनाए रखना
लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सम्मान
समय के साथ नीति निर्धारण की छूट देना
1976: जब इंदिरा गांधी सरकार ने संशोधन कर जोड़े ये शब्द
आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए।
42वां संशोधन:
तारीख: 18 दिसंबर 1976
प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द:
Sovereign
Socialist
Secular
Democratic
Republic
क्या डॉ. अंबेडकर के फैसले को बदला गया?
यह कहना कठिन है कि उन्हें गलत ठहराया गया। असल में, अंबेडकर का निर्णय समय-सापेक्ष था। जबकि 1976 में जोड़ा गया संशोधन परिस्थिति और नेतृत्व की आवश्यकता के अनुरूप था।
धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का व्यवहारिक अर्थ
धर्मनिरपेक्षता का भारतीय रूप:
राज्य का कोई धर्म नहीं होगा
सभी धर्मों का समान सम्मान
धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी
समाजवाद का भारतीय संस्करण:
राज्य संसाधनों का न्यायसंगत वितरण करेगा
अमीर और गरीब के बीच की खाई कम की जाएगी
समान अवसर और सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जाएगा
संविधान की लचीलापन शक्ति
भारत का संविधान एक “Living Document” है। वह समय के साथ खुद को ढाल सकता है। 1948 में जो नहीं जोड़ा गया, वह 1976 में जोड़ा गया। यह संविधान की ताकत है, कमजोरी नहीं।
आलोचना और समर्थन: दो ध्रुव
आलोचना:
विपक्ष ने 1976 के संशोधन को आपातकाल की तानाशाही का हिस्सा कहा
यह बदलाव बिना व्यापक बहस के किया गया
समर्थन:
इससे संविधान की मूल भावना स्पष्ट हुई
- भारत की बहुलता और सामाजिक न्याय को मजबूती मिलीसंविधान निर्माण में हर शब्द का महत्व
- संविधान निर्माण कोई साधारण प्रक्रिया नहीं थी। यह भारत जैसे विविधता से भरे देश में एक साझा पहचान और न्यायप्रिय शासन की नींव रखने की प्रक्रिया थी।
प्रत्येक अनुच्छेद पर गहन बहस
- संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिन तक गहन विमर्श किया।
- कुल 165 बैठकों में एक-एक शब्द की समीक्षा हुई।
- यही कारण है कि संविधान आज भी भारत के लोकतंत्र की मजबूत नींव है।
“धर्मनिरपेक्ष” शब्द पर बहस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत हजारों वर्षों से अनेक धर्मों की भूमि रहा है — हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी सभी ने यहां सह-अस्तित्व में जीवन जिया। परंतु 1947 का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ, जिससे यह डर था कि भविष्य में धार्मिक राजनीति फिर न उभर आए।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है?
- राज्य किसी धर्म का न पक्ष लेगा, न विरोध करेगा।
- सभी धर्मों को समान दर्जा मिलेगा।
- नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी होगी।
प्रो. शाह का प्रस्ताव इस विचार पर आधारित था कि भारत को स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित करना चाहिए।
“समाजवादी” शब्द पर बहस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
देश की आजादी के समय भारत में गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और जातिगत भेदभाव व्यापक रूप से फैला हुआ था। समाजवाद एक ऐसी विचारधारा थी जो इन विषमताओं के विरुद्ध समाधान देती थी।
समाजवाद का अर्थ क्या है?
- आर्थिक संसाधनों का समान वितरण
- गरीब और अमीर में संतुलन
- न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति सबके लिए
प्रो. शाह का कहना था कि संविधान में समाजवाद का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए ताकि सरकार की नीति उस दिशा में बंधी रहे।
संविधान सभा के कुछ प्रमुख विचार
हरिनाथ शास्त्री:
“अगर हम समाज के कमजोर वर्गों की रक्षा नहीं करेंगे, तो स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा।”
अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर:
“संविधान कोई धर्मग्रंथ नहीं है जिसमें अंतिम सत्य लिखा हो; यह एक ऐसा दस्तावेज है जो आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखाता है।”
दुर्गा बाई देशमुख:
“स्त्रियों और दलितों को बराबरी का अधिकार केवल तभी मिल सकता है जब राज्य का रुख स्पष्ट रूप से समाजवादी हो।”
धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों पर संविधान सभा की बहस: अंबेडकर vs के.टी. शाह की ऐतिहासिक टकराव! प्रस्ताव की अस्वीकृति: क्या यह गलती थी?
इस विषय पर वर्षों से विद्वानों में मतभेद है। कुछ इसे अंबेडकर की दूरदृष्टि मानते हैं, तो कुछ इसे एक ऐतिहासिक चूक।
अंबेडकर की दृष्टि में मजबूती:
- उन्होंने संविधान को समय के अनुरूप बदल सकने वाला बनाया।
- विचारधारात्मक लचीलापन बनाए रखा।
विरोध की दृष्टि से:
- प्रस्तावना में स्पष्ट दिशा न होने से कई बार दुविधा की स्थिति बनी।
- समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों को बार-बार साबित करना पड़ा।
42वां संविधान संशोधन: इंदिरा गांधी का ऐतिहासिक कदम
1975 के आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में कई बड़े बदलाव किए। इन्हीं में से एक था “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना।
इस संशोधन के पीछे की सोच:
- विपक्षी दलों पर बढ़ते दबाव को राजनीतिक रूप से संतुलित करना।
- संविधान की वैचारिक स्थिति को स्पष्ट करना।
- भविष्य की न्यायपालिका और नीतियों को इन शब्दों के आलोक में देखने का आधार देना।
इस पर आलोचना:
- यह फैसला बिना विस्तृत बहस और आम सहमति के लिया गया।
- आपातकाल में जनता की स्वतंत्रता सीमित थी, इसलिए इसे “थोपा गया संशोधन” भी कहा गया।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका: “मौलिक संरचना सिद्धांत” और प्रस्तावना
1973 के केशवानंद भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा:
“संविधान की प्रस्तावना इसकी मौलिक संरचना का हिस्सा है, जिसे बदला नहीं जा सकता।”
इससे धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को स्थायित्व मिला।
आधुनिक भारत में इन शब्दों की प्रासंगिकता
क्या भारत वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है?
- हां, कानून सबको बराबरी का दर्जा देता है।
- लेकिन व्यवहार में कई बार राजनीतिक दल धर्म के नाम पर वोट मांगते हैं।
क्या भारत समाजवादी है?
- कुछ हद तक – जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, राशन प्रणाली, MGNREGA आदि में समाजवादी मूल्यों की झलक मिलती है।
- लेकिन निजीकरण और कॉर्पोरेट के प्रभाव के कारण शुद्ध समाजवाद नहीं कहा जा सकता।
आज के संदर्भ में यह बहस कितनी जरूरी?
यह बहस आज भी उतनी ही जरूरी है, जितनी 1948 में थी।
कारण:
- धार्मिक ध्रुवीकरण का बढ़ता चलन
- आर्थिक विषमता में वृद्धि
- संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ माहौल बनना
- इसलिए संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों का होना एक मूल्य-घोषणा से कहीं अधिक, एक नैतिक दिशा-निर्देश हैभारतीय समाज के लिए “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” का क्या महत्व है?
भारतीय विविधता में एकता का आधार – धर्मनिरपेक्षता
भारत में सैकड़ों धर्म, पंथ, भाषाएं, और संस्कृतियां एक साथ निवास करती हैं। यदि राज्य किसी एक धर्म के प्रति झुकाव रखे, तो वह देश की सामाजिक संरचना को तोड़ सकता है। धर्मनिरपेक्षता का मतलब भारत में केवल धर्मों से दूरी नहीं, बल्कि सबको बराबरी देना है।
समाजवाद – समानता और न्याय की नींव
भारत में आज भी करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार की असमानता मौजूद है। समाजवाद का उद्देश्य इन असमानताओं को घटाना और सबको न्याय देना है। यह पूंजीवाद की अंधी दौड़ को मानवीय दृष्टिकोण से संतुलित करता है।
क्या “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” केवल शब्द हैं?
यह सवाल आज भी प्रासंगिक है। कई बार यह तर्क दिया जाता है कि ये शब्द केवल प्रतीकात्मक हैं, जबकि कुछ लोग इन्हें राष्ट्र की आत्मा मानते हैं।
सकारात्मक पक्ष:
इन शब्दों ने भारतीय राज्य की नीतियों को एक मानवीय दिशा दी।
नीतिगत कार्यक्रमों जैसे आरक्षण, मनरेगा, जनधन योजना आदि को वैचारिक आधार मिला।
नकारात्मक पक्ष:
कई बार इन शब्दों का राजनीतिक दुरुपयोग हुआ।
“धर्मनिरपेक्षता” को सांप्रदायिकता के आरोपों में उलझा दिया गया।
“समाजवाद” को केवल नारों तक सीमित रखा गया।
आज के युवाओं के लिए इससे क्या सीख है?
1. संविधान केवल किताब नहीं, चेतना है
संविधान सभा में हर शब्द पर गहन चर्चा हुई – इसका मतलब है कि हर नागरिक को संविधान को समझना और जीना चाहिए।
2. धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल “No Religion” नहीं है
यह सभी धर्मों के प्रति सम्मान और तटस्थता है।
3. समाजवाद का मतलब है – न्याय, बराबरी, और गरिमा
यदि हम समाज के अंतिम व्यक्ति को अवसर दे सकें, तो यही समाजवाद है।
संविधान और समय की कसौटी
1949 का संविधान – बिना शब्दों के भी धर्मनिरपेक्ष था
1976 का संशोधन – शब्द जोड़कर इसे स्पष्ट किया गया
यह दिखाता है कि संविधान समय के साथ विकसित होता है, लेकिन उसकी आत्मा स्थिर रहती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत का मॉडल
भारत का धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी मॉडल विशिष्ट है। पश्चिमी देशों की तरह केवल चर्च और स्टेट का अलगाव नहीं, बल्कि भारत में सभी धर्मों को बराबर महत्व दिया जाता है।
कुछ तुलनात्मक उदाहरण:
देश संविधान में “सेक्युलर” समाजवादी दृष्टिकोण अमेरिका हाँ सीमित फ्रांस हाँ नहीं चीन नहीं हाँ (राज्य नियंत्रित) भारत हाँ (1976 से) हाँ (भारतीय संदर्भ में) डॉ. अंबेडकर और उनका दृष्टिकोण आज भी क्यों प्रासंगिक है?
डॉ. अंबेडकर का लोकतंत्र में गहरा विश्वास था। उन्होंने कहा था:
“संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होगा जितने अच्छे या बुरे हमारे नागरिक और प्रतिनिधि होंगे।”
आज जब लोकतंत्र की चुनौतियाँ हैं – जैसे धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण, आर्थिक असमानता, या संस्थाओं की स्वतंत्रता पर सवाल – तब अंबेडकर का विचारशील और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण हमें सही दिशा दिखाता है।
क्या संविधान को फिर से संशोधित किया जाना चाहिए?
यह एक ज्वलंत बहस है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि संविधान की प्रस्तावना में और शब्द जोड़े जाने चाहिए जैसे “पर्यावरणीय न्याय”, “डिजिटल अधिकार”, आदि।
परंतु, कई लोग यह भी मानते हैं कि मूल आत्मा को छेड़ना खतरनाक हो सकता है।
संविधान की ताकत:
संतुलन
लचीलापन
मानव अधिकारों की रक्षा
लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा
निष्कर्ष: एक शब्द नहीं, एक विचारधारा की जीत
“धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” केवल शब्द नहीं हैं, वे भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श के धरोहर हैं। प्रोफेसर के.टी. शाह ने जो प्रस्ताव रखा था, वह भले ही उस समय अस्वीकृत हुआ, लेकिन उस विचार ने समय के साथ संविधान की आत्मा में जगह बना ली।
डॉ. अंबेडकर का विचार था कि शब्दों से अधिक जरूरी उनके पीछे की भावना है। और यही भारत की विशेषता है – हम बहस करते हैं, असहमति रखते हैं, लेकिन अंततः एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में आगे बढ़ते हैं।
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