नीलगिरि तहर गणना 2025: केरल और तमिलनाडु की ऐतिहासिक पहल, वन्यजीव संरक्षण की नई मिसाल!

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नीलगिरि तहर गणना 2025: एक नई शुरुआत की ओर

संरक्षण, सहयोग और संवेदनशीलता की दिशा में केरल और तमिलनाडु का ऐतिहासिक कदम

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भूमिका: प्रकृति के प्रहरी बनते राज्य

भारत की जैव विविधता में कुछ जीव ऐसे हैं जो न केवल अनोखे हैं बल्कि हमारे प्राकृतिक धरोहर का प्रतीक भी हैं। इन्हीं में से एक है नीलगिरि तहर — एक दुर्लभ पर्वतीय स्तनपायी जो केवल दक्षिण भारत के कुछ खास हिस्सों में पाया जाता है।

अब जब दो पड़ोसी राज्य, केरल और तमिलनाडु, इस जीव की गणना के लिए पहली बार मिलकर एक साझा कदम बढ़ा रहे हैं, तो यह एक ऐसा क्षण है जो केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं, बल्कि संरक्षण के एक बड़े विचार का संकेत है।

नीलगिरि तहर कौन है?

नीलगिरि तहर, जिसे स्थानीय भाषाओं में “वारायाडु” भी कहा जाता है, एक मध्य आकार का जंगली बकरी जैसा जीव है। इसका शरीर मजबूत होता है, रंग गहरा भूरा और नाक के पास हल्की सफेदी होती है।

नर तहरों के सिंग मोटे और पीछे की ओर मुड़े हुए होते हैं, जो उन्हें विशिष्ट पहचान देते हैं।

यह जीव आमतौर पर ऊँचाई वाले घास के मैदानों, पथरीले इलाकों और घाटों में पाया जाता है, खासकर पश्चिमी घाट की पर्वतमालाओं में। दुर्भाग्य से, बढ़ती मानव गतिविधियों, जलवायु परिवर्तन और आवास क्षरण के कारण यह जीव संकट में आ गया है।

सर्वेक्षण की आवश्यकता क्यों पड़ी?

जब कोई जीव संकटग्रस्त की श्रेणी में आ जाता है, तो केवल कागजों पर उसकी स्थिति दर्ज कर देना काफी नहीं होता। जरूरी होता है कि उसके वास्तविक अस्तित्व की पड़ताल की जाए — वह कहां है, कितनी संख्या में है, किस हालात में है, और उसे क्या खतरे हैं?

नीलगिरि तहर की आखिरी बड़ी गणना लगभग एक दशक पहले हुई थी। तब यह अनुमान लगाया गया था कि पूरे दक्षिण भारत में इसकी संख्या करीब 3000 से थोड़ी अधिक है। लेकिन इतने वर्षों में इसके हालात कैसे बदले हैं, यह जानना बेहद जरूरी हो गया है।गणना कब और कैसे होगी?

नीलगिरि तहर की यह संयुक्त गणना 24 अप्रैल से 27 अप्रैल 2025 तक चलेगी। यानी पूरे चार दिनों तक केरल और तमिलनाडु के वन विभाग मिलकर इस अभियान को अंजाम देंगे।

केरल में: 89 ब्लॉकों में सर्वेक्षण होगा

तमिलनाडु में: 176 ब्लॉकों को चिन्हित किया गया है

हर ब्लॉक में अलग-अलग टीमें बनाई जाएंगी, जिनमें वन विभाग के अधिकारी, स्थानीय विशेषज्ञ, शोधकर्ता और कुछ प्रशिक्षित स्वयंसेवक भी शामिल होंगे।

यह सहयोग इतना खास क्यों है?

भारत में राज्य सरकारें अक्सर अपने-अपने क्षेत्र के कार्यों में व्यस्त रहती हैं। लेकिन जब दो राज्य — अपने-अपने संसाधनों और विभागों को एक साथ लाकर एक विलुप्तप्राय जीव की रक्षा के लिए एकजुट होते हैं — तो यह एक मजबूत संदेश देता है कि ‘प्रकृति की रक्षा सीमाओं से परे होती है’।

यह सिर्फ सर्वे नहीं है — यह एक सांस्कृतिक और नैतिक साझेदारी है, जिसमें इंसान और प्रकृति के रिश्ते को फिर से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है।

गणना की प्रक्रिया: विज्ञान और संवेदनशीलता का संगम

इस अभियान में दो मुख्य वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग होगा:

1. बाउंडेड काउंट (Bounded Count):

इसमें टीमें पहले से तय क्षेत्रों में घूमकर तहरों की संख्या दर्ज करेंगी। इससे ये पता चलेगा कि किस क्षेत्र में कितने तहर रहते हैं।

2. डबल ऑब्जर्वर मेथड (Double Observer Method):

इस तकनीक में दो स्वतंत्र पर्यवेक्षक एक ही क्षेत्र में तैनात होते हैं। वे जो भी जानवर देखते हैं, उनकी सूची अलग-अलग बनाते हैं और बाद में मिलान करके अनुमानित सही संख्या तय की जाती है।

तकनीक का सहारा

इस बार की गणना में आधुनिक तकनीकों का भी बड़ा योगदान रहेगा। जैसे:

GPS लोकेशन टैगिंग

ड्रोन सर्वेक्षण

मोबाइल एप्स के ज़रिए रिकॉर्डिंग

GIS मैपिंग

इससे न केवल तहर की उपस्थिति दर्ज की जाएगी, बल्कि यह भी पता चलेगा कि कौन-से इलाके उनके रहने के लिए सबसे उपयुक्त हैं।

स्थानीय समुदाय की भूमिका

इस अभियान की सबसे बड़ी ताकत हैं वहां के स्थानीय लोग — विशेष रूप से आदिवासी समुदाय और ग्रामीण जो इन क्षेत्रों में रहते हैं। वे नीलगिरि तहर को न केवल जानते हैं, बल्कि उनके साथ जीते भी हैं।

गणना के पहले चरण में इन समुदायों को प्रशिक्षण दिया गया है कि वे कैसे तहर की पहचान करें, उन्हें परेशान किए बिना उनकी जानकारी दर्ज करें और वन विभाग की टीमों की मदद करें।

संरक्षण की चुनौतियाँ

नीलगिरि तहर की सुरक्षा में सबसे बड़ी बाधाएं हैं:

मानव अतिक्रमण (Encroachment)

अवैध निर्माण

जलवायु परिवर्तन

वन क्षेत्र में घुसपैठ

आवास विखंडन (Habitat Fragmentation)

इसके अलावा, पर्यावरणीय जागरूकता की कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में वन्यजीवों को लेकर फैली गलतफहमियां भी कई बार इनकी स्थिति को और कमजोर बना देती हैं।

 गणना के बाद क्या होगा?

यह सर्वेक्षण न केवल यह बताएगा कि तहर कितनी संख्या में हैं, बल्कि यह भी बताएगा कि उन्हें कैसे सुरक्षित किया जा सकता है। सर्वेक्षण के बाद:

एक राज्य स्तरीय रिपोर्ट बनाई जाएगी

संयुक्त संरक्षण रणनीति तैयार की जाएगी

स्थानीय लोगों के लिए प्रशिक्षण और रोजगार की योजना बनेगी

तहर की उपस्थिति वाले क्षेत्रों को इको-सेंसिटिव जोन घोषित किया जा सकता है

मानव और वन्यजीव: रिश्तों की एक नई परिभाषा

यह पूरी प्रक्रिया सिर्फ एक गणना भर नहीं है, यह हमारे भविष्य को बचाने की एक कोशिश है। नीलगिरि तहर हमारे जंगलों की आत्मा हैं। अगर हम इन्हें बचा लेते हैं, तो हम न केवल एक प्रजाति को बचाते हैं, बल्कि उस पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित करते हैं जिसमें ये जीवित हैं।

नीलगिरि तहर गणना 2025: केरल और तमिलनाडु की ऐतिहासिक पहल, वन्यजीव संरक्षण की नई मिसाल!
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नीलगिरि तहर और जलवायु परिवर्तन: एक अदृश्य संघर्ष

नीलगिरि तहर की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है जलवायु परिवर्तन। तापमान में धीरे-धीरे हो रही वृद्धि और वर्षा चक्र में आए असंतुलन ने उन पारिस्थितिक तंत्रों को प्रभावित किया है जिन पर तहर निर्भर करता है।

पहले जहां ऊँचाई पर स्थायी रूप से ठंडा वातावरण होता था, अब वहां भी गर्मी का प्रभाव बढ़ गया है। इसका असर इन जानवरों की प्रजनन क्षमता, भोजन की उपलब्धता और उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यही रुझान जारी रहा, तो आने वाले दशकों में नीलगिरि तहर को उपयुक्त निवास की खोज में और अधिक ऊँचाई की ओर पलायन करना पड़ सकता है, जिससे उनके लिए भोजन और सुरक्षित आवास की चुनौती और बढ़ जाएगी।

क्या यह सर्वेक्षण अन्य जीवों के लिए भी फायदेमंद होगा?

जी हां। नीलगिरि तहर की गणना के दौरान जिन इलाकों में सर्वेक्षण किया जाएगा, वहां पर अन्य वन्यजीवों की उपस्थिति भी दर्ज की जाएगी। उदाहरण के तौर पर:

शेर की पूंछ वाला मकाक (Lion-tailed macaque)

भारतीय हाथी

भौंकने वाला हिरण (Barking deer)

पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियाँ

इससे इन क्षेत्रों की समग्र जैव विविधता की स्थिति का भी मूल्यांकन हो सकेगा, जिससे एक इंटीग्रेटेड बायोडायवर्सिटी मैप बनाया जा सकता है।

शोध और शिक्षा का एक अवसर

यह सर्वेक्षण केवल वन विभाग के लिए ही नहीं, बल्कि शोधकर्ताओं, पर्यावरणविदों और छात्रों के लिए भी एक सुनहरा अवसर है। कई विश्वविद्यालयों ने पहले ही इस प्रक्रिया में अपने छात्रों को शामिल करने की योजना बनाई है, ताकि वे जमीनी स्तर पर जैव विविधता को समझ सकें और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करें।

इससे आने वाली पीढ़ियों में प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी और संरक्षण की भावना को भी बल मिलेगा।

नीलगिरि तहर संरक्षण में तकनीकी क्रांति

इस बार गणना में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग न केवल प्रक्रिया को पारदर्शी बनाएगा, बल्कि डेटा संग्रह को सटीक और उपयोगी भी बनाएगा। उदाहरणस्वरूप:

AI आधारित इमेज रेकग्निशन सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया जाएगा जिससे एक जैसे दिखने वाले तहरों की पहचान अलग-अलग हो सके।

ब्लूटूथ ट्रैप कैमरे जो बिना किसी शोर के तस्वीरें और वीडियो रिकॉर्ड कर सकें।

एक रीयल टाइम डेटा फीड सिस्टम जिससे मुख्य केंद्र पर तुरंत जानकारी भेजी जा सके।

संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान

नीलगिरि तहर कई बार ऐसे इलाकों में भी देखे गए हैं जो अब शहरीकरण या पर्यटन के कारण दबाव में आ चुके हैं। इस सर्वेक्षण के जरिए इन हॉटस्पॉट एरिया की पहचान भी की जाएगी ताकि इन जगहों को “हाई कंज़र्वेशन प्रायोरिटी ज़ोन” घोषित किया जा सके। इससे वहां नए निर्माण या मानवीय दखल को रोका जा सकेगा।

मीडिया और जनजागरूकता का सहयोग

तमिलनाडु और केरल के सूचना एवं प्रसारण विभाग ने मिलकर एक विशेष जनजागरूकता अभियान शुरू किया है:

नीलगिरि तहर पर आधारित डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाई जा रही हैं।

स्कूलों और कॉलेजों में पोस्टर प्रदर्शनी लगाई जा रही है।

लोकल FM रेडियो पर रोज़ाना जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

इसका उद्देश्य केवल गणना को सफल बनाना नहीं, बल्कि लोगों को यह बताना भी है कि यह जीव उनके जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है।

संरक्षण नीति का पुनर्लेखन

यह सर्वेक्षण एक नया रास्ता खोल सकता है — नीलगिरि तहर संरक्षण नीति 2025। इसके अंतर्गत:

सुरक्षित गलियारे (corridors) बनाए जा सकते हैं।

उनके प्राकृतिक निवास स्थलों को ‘Protected Zones’ घोषित किया जा सकता है।

अवैध गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखी जा सकती है।

मानव-वन्यजीव संघर्षों को सुलझाने की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं।

एकजुटता की मिसाल: ‘बियॉन्ड बाउंड्री’ पहल

‘बियॉन्ड बाउंड्री’ नाम से एक नई योजना की नींव डाली गई है, जिसके तहत यह तय किया गया है कि नीलगिरि तहर की सुरक्षा केवल राज्यीय नहीं, बल्कि क्षेत्रीय जिम्मेदारी है।

इस विचार को आने वाले समय में कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों से भी जोड़ने की योजना है।

तहर और लोककथाएँ: सांस्कृतिक जुड़ाव

दक्षिण भारत की कई आदिवासी और ग्रामीण लोककथाओं में नीलगिरि तहर का ज़िक्र आता है। कुछ जनजातियाँ इन्हें पवित्र मानती हैं और पर्वतों के रक्षक के रूप में देखती हैं।

इस सांस्कृतिक जुड़ाव को भी संरक्षण के साथ जोड़ा जा रहा है ताकि लोगों की भावना भी इस अभियान का हिस्सा बने।

संभावित परिणाम और आशाएं

यदि यह सर्वेक्षण सफल रहा, तो इसके परिणामस्वरूप:

  1. तहर की यथार्थ संख्या पता चलेगी
  2. प्रजनन दर, स्वास्थ्य और उम्र आदि का विश्लेषण किया जा सकेगा
  3. भौगोलिक वितरण और प्रवास पैटर्न समझ में आएंगे
  4. खतरों की पहचान कर उनके समाधान निकाले जा सकेंगे

इस सबका निष्कर्ष केवल एक डेटा शीट नहीं होगा, बल्कि एक जीवित दस्तावेज होगा — जो वर्षों तक नीतिगत निर्णयों का आधार बन सकता है।

नीलगिरि तहर गणना 2025: केरल और तमिलनाडु की ऐतिहासिक पहल, वन्यजीव संरक्षण की नई मिसाल!
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स्थानीय समुदायों की भूमिका: जंगल के प्रहरी

नीलगिरि तहर के संरक्षण में एक और महत्वपूर्ण स्तंभ हैं — स्थानीय और आदिवासी समुदाय। इन समुदायों का जीवन सदियों से जंगलों से जुड़ा रहा है। वे न केवल प्रकृति की रक्षा करते हैं, बल्कि उसकी गहराई से समझ भी रखते हैं।

इस सर्वेक्षण अभियान में इन समुदायों को शामिल करना एक सकारात्मक कदम है। उनके अनुभवों, उनकी पारंपरिक जानकारी, उनके ट्रैकिंग कौशल और जानवरों के व्यवहार की समझ का उपयोग करके अधिक सटीक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। साथ ही, जब कोई योजना स्थानीय लोगों को भागीदार बनाकर लागू की जाती है, तो उसका असर दीर्घकालिक होता है।

आर्थिक और पारिस्थितिक लाभ: एक जुड़ाव

नीलगिरि तहर जैसे दुर्लभ जीव केवल जैव विविधता का हिस्सा नहीं, बल्कि ईको-टूरिज़्म का भी आधार हो सकते हैं। यदि उनकी संख्या में वृद्धि होती है और सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है, तो इन पहाड़ी क्षेत्रों में आने वाले पर्यटकों की संख्या में वृद्धि हो सकती है। इससे:

स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलेगा

राज्य की आय बढ़ेगी

और प्राकृतिक संसाधनों का सतत् उपयोग सुनिश्चित किया जा सकेगा

पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का यह जुड़ाव विकास और संरक्षण के बीच एक संतुलन बना सकता है।

भविष्य की राह: गणना से संरक्षण की ओर

जब यह सर्वेक्षण 27 अप्रैल को समाप्त होगा, तब इसके नतीजों को वैज्ञानिक रूप से विश्लेषित किया जाएगा। इसके बाद:

  1. एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाएगी
  2. सुझावों पर नीति निर्धारण किया जाएगा
  3. सार्वजनिक संवाद और शिक्षा के लिए डेटा साझा किया जाएगा

यह एक ‘डेटा टू एक्शन’ मॉडल होगा, जहाँ केवल आँकड़े इकट्ठा करना उद्देश्य नहीं है, बल्कि उन्हें लागू करना प्राथमिकता होगी।

एक प्रेरक मिसाल: भारत के अन्य राज्यों के लिए मॉडल

केरल और तमिलनाडु द्वारा की गई यह पहल पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन सकती है। अन्य राज्य भी इस संयुक्त मॉडल को अपनाकर अपने स्थानीय वन्यजीवों की गणना और संरक्षण के लिए इंटर-स्टेट कोऑर्डिनेशन की नीति बना सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर:

काजीरंगा में गैंडा गणना

मध्य भारत में बाघों की निगरानी

हिमालयी क्षेत्रों में हिम तेंदुओं का संरक्षण

इन सभी क्षेत्रों में एकीकृत प्रयासों की ज़रूरत है — और नीलगिरि तहर गणना इसका आदर्श प्रारूप बन सकती है।

निष्कर्ष: एक छोटा प्राणी, बड़ी उम्मीद

नीलगिरि तहर, अपनी विशाल पहाड़ियों पर एक शांत, संतुलित जीवन जीता है। लेकिन अब उसका जीवन हमारे निर्णयों पर निर्भर करता है। यह सर्वेक्षण केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि संवेदनशीलता, विज्ञान, संस्कृति और जिम्मेदारी का संगम है।

जब एक राज्य सीमा से बाहर जाकर दूसरे राज्य से हाथ मिलाता है…

जब एक वन अधिकारी किसी स्थानीय चरवाहे से सलाह लेता है…

जब एक वैज्ञानिक किसी आदिवासी बच्चे को बताता है कि यह तहर कितनी अनमोल प्रजाति है…

तो वह केवल गणना नहीं करता, वह भविष्य की दिशा तय करता है।

अब यह हम सभी का कर्तव्य है कि इस मुहिम को न केवल देखें, बल्कि उसका हिस्सा बनें। क्योंकि यह केवल तहर का सवाल नहीं है — यह हमारे भविष्य का सवाल है।


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Sanjeev

Hello! Welcome To About me My name is Sanjeev Kumar Sanya. I have completed my BCA and MCA degrees in education. My keen interest in technology and the digital world inspired me to start this website, “Aajvani.com.”

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