सिंधु जल समझौता: एक ऐतिहासिक संधि जो आज भी उम्मीद जगाती है
भूमिका
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Toggleभारत और पाकिस्तान के बीच हुए कई विवादों में से जल बंटवारा भी एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। लेकिन जब दुनिया में शीत युद्ध का प्रभाव चरम पर था, और भारत-पाक के बीच तनाव बढ़ रहे थे, तब भी एक ऐसा समझौता हुआ जिसे आज “सफलतम अंतरराष्ट्रीय जल संधियों” में गिना जाता है — यह थी सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty)।
यह संधि सिर्फ दो देशों के बीच एक जल समझौता नहीं है, बल्कि यह इस बात का भी उदाहरण है कि कैसे कूटनीति, वैज्ञानिक सोच और सहयोग से बड़ी समस्याओं को हल किया जा सकता है।
सिंधु नदी प्रणाली की पृष्ठभूमि
सिंधु नदी की उत्पत्ति
सिंधु नदी की उत्पत्ति तिब्बत के मानसरोवर झील के पास से होती है। यह नदी भारत के लद्दाख क्षेत्र से गुजरती हुई पाकिस्तान में प्रवेश करती है और अंततः अरब सागर में गिरती है।
मुख्य सहायक नदियाँ
सिंधु नदी प्रणाली में कुल छह प्रमुख नदियाँ हैं:
- सिंधु (Indus)
झेलम (Jhelum)
चिनाब (Chenab)
रावी (Ravi)
ब्यास (Beas)
सतलुज (Sutlej)
इन नदियों का जल पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की कृषि, उद्योग और पीने के पानी के लिए बेहद आवश्यक है।
भारत-पाक जल विवाद की उत्पत्ति
विभाजन के समय स्थिति
1947 में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान बना। विभाजन के बाद सिंधु नदी प्रणाली की लगभग सभी नदियाँ भारत से होकर पाकिस्तान जाती थीं। इसका अर्थ यह था कि पाकिस्तान की जल निर्भरता भारत पर हो गई थी। इससे पाकिस्तान में चिंता बढ़ गई।
भारत का रुख
भारत ने शुरुआत में कुछ समय तक पाकिस्तान को बिना बाधा के जल आपूर्ति जारी रखी। लेकिन 1 अप्रैल 1948 को भारत ने पानी की आपूर्ति को अस्थायी रूप से रोक दिया, जिससे पाकिस्तान में भय और असंतोष फैल गया। यह घटना जल विवाद की जड़ बनी।
विश्व बैंक की मध्यस्थता और समझौता
विश्व बैंक की भूमिका
जल विवाद को हल करने के लिए दोनों देशों के बीच कई बार बातचीत हुई लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं निकला। इस बीच, विश्व बैंक (तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक) ने मध्यस्थता की पेशकश की।
संधि का निर्माण
करीब 8 वर्षों तक चले तकनीकी, कूटनीतिक और राजनीतिक विचार-विमर्श के बाद, 19 सितंबर 1960 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान के बीच सिंधु जल संधि पर कराची में हस्ताक्षर किए गए।

संधि की मुख्य बातें
नदियों का बंटवारा
इस संधि के तहत सिंधु नदी प्रणाली की छह नदियों को दो हिस्सों में बाँटा गया:
पूर्वी नदियाँ: रावी, ब्यास, सतलुज – इनका जल उपयोग भारत को दिया गया।
पश्चिमी नदियाँ: सिंधु, झेलम, चिनाब – इनका अधिकांश जल उपयोग पाकिस्तान को दिया गया।
भारत के अधिकार
हालाँकि पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों का प्रमुख उपयोगकर्ता माना गया, लेकिन भारत को भी कुछ अधिकार दिए गए:
घरेलू उपयोग (domestic use)
कृषि उपयोग (non-consumptive irrigation)
जल विद्युत परियोजनाओं (run-of-the-river hydroelectricity) के लिए सीमित मात्रा में जल उपयोग की अनुमति
निगरानी और सूचना व्यवस्था
दोनों देशों को परियोजनाओं की जानकारी साझा करनी होती है।
एक स्थायी सिंधु आयोग (Permanent Indus Commission) गठित किया गया जिसमें दोनों देशों के एक-एक आयुक्त होते हैं।
यह आयोग हर साल बैठक करता है और किसी भी मुद्दे पर आपसी संवाद के जरिये समाधान करता है।
संधि का महत्व और विशेषता
राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद स्थायित्व
भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं (1965, 1971, 1999), इसके बावजूद सिंधु जल संधि कभी समाप्त नहीं हुई। यह इसकी स्थिरता और मजबूती को दर्शाता है।
जल विवाद का शांतिपूर्ण हल
यह संधि जल विवादों के समाधान का एक अंतरराष्ट्रीय मॉडल बन चुकी है। इसके तहत तकनीकी और वैज्ञानिक आधार पर मुद्दों का हल किया जाता है, न कि सिर्फ राजनीतिक भावनाओं के आधार पर।
संधि की सफलता के कारण
1. तकनीकी आधार पर समाधान
इस संधि में केवल राजनीतिक या भावनात्मक दृष्टिकोण नहीं था, बल्कि यह हाइड्रोलॉजिकल डेटा, इंजीनियरिंग रिपोर्ट्स, और मौसम विज्ञान जैसी तकनीकी जानकारी के आधार पर तैयार की गई थी। यही कारण है कि यह लंबे समय तक व्यवहार में बनी रही।
2. स्थायी आयोग की स्थापना
Permanent Indus Commission की स्थापना एक बड़ी पहल थी। यह आयोग न केवल विवादों का समाधान करता है, बल्कि जल डेटा साझा करने, परियोजनाओं की निगरानी करने और आपसी संवाद कायम रखने में भी सक्रिय है।
3. नियमित संवाद
हर वर्ष दोनों देशों के बीच कम से कम एक बार बैठक होती है। यह संवाद प्रक्रिया दोनों देशों को मुद्दों को समय रहते हल करने में मदद करता है।
राजनीतिक और भू-राजनीतिक प्रभाव
1. भारत की रणनीतिक स्थिति
भारत के पास पूर्वी नदियों पर पूर्ण नियंत्रण है, जिससे वह इन नदियों के जल का पूरा उपयोग कर सकता है। इससे भारत को सिंचाई, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन में आत्मनिर्भरता मिलती है।
2. पाकिस्तान की निर्भरता
पाकिस्तान की अधिकांश कृषि भूमि पश्चिमी नदियों पर आधारित है। यदि भारत संधि का पालन न करे, तो पाकिस्तान की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है।
3. चीन का संभावित हस्तक्षेप
सिंधु नदी की उत्पत्ति तिब्बत (चीन) में होती है। यदि भविष्य में चीन इस नदी पर कोई बाँध बनाता है, तो भारत और पाकिस्तान दोनों ही प्रभावित हो सकते हैं। यह एक नई भू-राजनीतिक चुनौती होगी।
पर्यावरणीय दृष्टिकोण
1. जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों का पिघलना
हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे पहले बाढ़ और बाद में जल संकट की स्थिति बन सकती है। सिंधु प्रणाली की नदियाँ हिमनद आधारित हैं, इसलिए यह बदलाव सीधे प्रभाव डालेगा।
2. जल प्रदूषण और औद्योगिक प्रभाव
नदियों में औद्योगिक अपशिष्ट और रासायनिक तत्वों की मात्रा बढ़ती जा रही है। इससे जल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है, जो कि संधि में एक अप्रत्याशित चुनौती बनकर उभरी है।
3. जैव विविधता का नुकसान
नदी तंत्र में जबरन हस्तक्षेप जैसे बाँध निर्माण, जल मोड़ना, और स्टोरेज से जलीय जीवन, मत्स्य पालन और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ रहा है। यह भी अब नीति निर्माताओं के सामने एक चिंता है।
चुनौतियाँ और विवाद
भारत की परियोजनाएँ और पाकिस्तान की आपत्ति
भारत ने पश्चिमी नदियों पर कई परियोजनाएँ शुरू की हैं, जैसे:
बगलीहार परियोजना (Jammu & Kashmir): स्थान: चिनाब नदी, जम्मू-कश्मीर
पाकिस्तान ने इसे संधि का उल्लंघन बताया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता ने भारत के पक्ष में फैसला दिया।
किशनगंगा परियोजना (J&K): स्थान: किशनगंगा (नीलम) नदी, जो झेलम की सहायक है।
पाकिस्तान ने विश्व बैंक में आपत्ति दर्ज कराई, लेकिन पंचाट ने भारत को परियोजना जारी रखने की अनुमति दी, कुछ शर्तों के साथ।
रतले परियोजना: स्थान: चिनाब नदी
यह परियोजना अभी भी विवाद में है, पाकिस्तान इसे लेकर आपत्ति जताता रहा है।
पाकिस्तान इन परियोजनाओं पर आपत्ति जताता रहा है और आरोप लगाता है कि भारत संधि का उल्लंघन कर रहा है।
भारत का तर्क
भारत कहता है कि ये परियोजनाएँ “Run-of-the-River” परियोजनाएँ हैं, जो कि संधि के तहत वैध हैं और पाकिस्तान के जल हिस्से को प्रभावित नहीं करतीं।
क्या भारत संधि रद्द कर सकता है?
संधि की प्रकृति
यह संधि एक बाइलेटरल इंटरनेशनल ट्रीटी है, जिसे एकतरफा रद्द नहीं किया जा सकता। यदि भारत इसे रद्द करता है तो यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक दबाव को आमंत्रित कर सकता है।

हाल के घटनाक्रम
2016 उरी हमले के बाद भारत ने कहा कि “रक्त और जल एक साथ नहीं बह सकते” और संधि की समीक्षा की।
2023 में भारत ने पाकिस्तान को नोटिस दिया कि संधि की समीक्षा की जाए क्योंकि पाकिस्तान बार-बार मध्यस्थता का दुरुपयोग कर रहा है।
यह दिखाता है कि भारत अब इस संधि को कूटनीतिक दबाव के तौर पर इस्तेमाल करने पर विचार कर रहा है।
भारत की रणनीतिक स्थिति
जल को लेकर रणनीति
भारत इस संधि को रद्द न करते हुए भी पूर्वी नदियों के जल का अधिकतम उपयोग करने की रणनीति अपना रहा है। इसके अंतर्गत:
नई सिंचाई परियोजनाएँ
स्टोरेज डैम निर्माण
सीमांत क्षेत्रों में जल संरक्षण
कूटनीतिक लाभ
भारत यदि संधि का पालन करता है तो वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नैतिक श्रेष्ठता बनाए रखता है और पाकिस्तान को एक गैर-जिम्मेदार देश के रूप में पेश कर सकता है।
पाकिस्तान के दृष्टिकोण से
जल सुरक्षा का प्रश्न
पाकिस्तान में कृषि और पेयजल आपूर्ति का लगभग 80% हिस्सा सिंधु नदी प्रणाली पर निर्भर है। इसलिए वह किसी भी भारतीय परियोजना को अपने जल अधिकारों पर खतरा मानता है।
राजनीतिक हथियार
पाकिस्तान ने कई बार अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में जाने की कोशिश की है, जैसे कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय पंचाट। इसका उद्देश्य भारत पर दबाव बनाना और खुद को पीड़ित दिखाना है।
विकल्प और सुधार की संभावना
1. टेक्नोलॉजिकल अपग्रेड
दोनों देश यदि चाहें तो जल मापन, अलर्ट सिस्टम और रियल-टाइम डेटा शेयरिंग के माध्यम से संधि को और अधिक मजबूत बना सकते हैं।
2. जल कूटनीति का प्रयोग
भारत अपनी सॉफ्ट पॉवर का उपयोग करके पाकिस्तान के साथ जल पर सहयोग बढ़ा सकता है — जैसे साझा परियोजनाएँ, वैज्ञानिक शोध, संयुक्त जल प्रबंधन प्रशिक्षण आदि।
3. संधि का संशोधन
आज की बदलती परिस्थितियों और जलवायु संकट को देखते हुए संधि में कुछ संयुक्त सुधारात्मक धाराएँ जोड़ी जा सकती हैं, ताकि दोनों देशों की जल सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
भविष्य की राह
जलवायु परिवर्तन की चुनौती
जलवायु परिवर्तन के चलते हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने और अनियमित मानसून से सिंधु प्रणाली भी प्रभावित हो रही है। इससे जल आपूर्ति में उतार-चढ़ाव आ सकता है और नए विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
संधि में संशोधन की आवश्यकता?
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि 60 साल पुरानी यह संधि अब पुराने संदर्भों में बनी थी और इसमें नई जल जरूरतों और तकनीकी बदलावों को देखते हुए संशोधन की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
सिंधु जल संधि भारत-पाकिस्तान के बीच एक ऐसा समझौता है जो कूटनीति, धैर्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दिखाता है कि कितनी भी कड़ी परिस्थितियाँ हों, यदि इरादा सकारात्मक हो, तो समाधान निकल सकता है।
आज जबकि दुनिया जल संकट की ओर बढ़ रही है, सिंधु जल संधि हमें यह सिखाती है कि साझा संसाधनों का समझदारी से बँटवारा और आपसी संवाद ही सतत विकास की कुंजी है।
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