Presidential Reference: सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला अनुच्छेद 142 भारत के संवैधानिक संतुलन के लिए
भूमिका
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Toggleभारतीय लोकतंत्र में संविधान ही सर्वोपरि है, और उसकी व्याख्या की अंतिम जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है। लेकिन जब कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों की सीमाएं धुंधली होने लगती हैं, तब संवैधानिक प्रश्न और भी गहरे हो जाते हैं।
ऐसा ही एक ऐतिहासिक क्षण तब आया जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत 14 सवालों के साथ सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी — यह पूछते हुए कि क्या न्यायपालिका अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल के कार्यों पर समयसीमा थोप सकती है?
यह रिपोर्ट इसी महत्वपूर्ण विषय पर केंद्रित है — जिसमें इस पूरे घटनाक्रम की पृष्ठभूमि, संवैधानिक व्याख्या, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा, राष्ट्रपति के संदर्भ की बारीकियां, और इसका संघीय ढांचे, लोकतंत्र और संस्थाओं की गरिमा पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव का विश्लेषण शामिल है।
घटनाक्रम की पृष्ठभूमि
तमिलनाडु और राज्यपाल के बीच टकराव
तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि राज्यपाल आर. एन. रवि कुछ विधेयकों पर जानबूझकर देरी कर रहे हैं — यह स्थिति संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 का उल्लंघन है,
जो स्पष्ट करता है कि राज्यपाल को विधेयकों पर स्वीकृति, अस्वीकृति या राष्ट्रपति के पास आरक्षण का निर्णय करना होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए 8 अप्रैल 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों पर समयसीमा निर्धारित की गई। इसके अनुसार:
राज्यपाल को विधेयक प्राप्त होने के 1 महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
यदि विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया है, तो राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर निर्णय करना होगा।
अनुच्छेद 142: राष्ट्रपति ने क्यों मांगी राय?
इस फैसले से केंद्र सरकार को यह चिंता हुई कि न्यायपालिका कार्यपालिका की संवैधानिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर रही है।
इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस विषय को लेकर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी — ताकि यह स्पष्ट हो सके कि क्या सुप्रीम कोर्ट इस प्रकार का आदेश देने के लिए अधिकृत है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश और उसके मायने
सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते।
“Constitutional Morality” और “Rule of Law” के तहत एक उचित समय सीमा आवश्यक है।
यदि राज्य विधानमंडल द्वारा पुनः पारित विधेयक को राज्यपाल फिर से रोकते हैं, तो यह लोकतंत्र के खिलाफ है।
न्यायिक समीक्षा और अनुच्छेद 142 का प्रयोग
अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति है कि वह ऐसा कोई आदेश या निर्देश दे जो “पूर्ण न्याय” (Complete Justice) के लिए आवश्यक हो। इसी आधार पर कोर्ट ने समयसीमा तय की।
लेकिन सवाल यह उठता है — क्या यह आदेश संविधान में वर्णित कार्यपालिका की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण है?
राष्ट्रपति का राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference)
संविधान का अनुच्छेद 143(1)
इस अनुच्छेद के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को किसी कानूनी या संवैधानिक प्रश्न पर संदेह हो, तो वे सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। कोर्ट की राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन इसका उच्च विधिक महत्व होता है।

राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए 14 प्रश्नों में प्रमुख बिंदु:
- क्या अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय राष्ट्रपति/राज्यपाल की कार्यप्रणाली को समयबद्ध कर सकता है?
- क्या अनुच्छेद 142 कार्यपालिका के विवेकाधिकार और स्वायत्तता में हस्तक्षेप नहीं है?
- क्या न्यायपालिका, राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के निर्णय पर समीक्षा कर सकती है?
- क्या अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल न्यायिक प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त हैं?
- क्या राष्ट्रपति द्वारा निर्णय लेने में देरी को भी अदालत चुनौती दे सकती है?
- क्या न्यायपालिका संविधान की मौनता को भर सकती है, जब संविधान कोई समयसीमा निर्धारित नहीं करता?
- क्या अनुच्छेद 142 संघीय ढांचे के खिलाफ है?
अनुच्छेद 142 संवैधानिक विश्लेषण
अनुच्छेद 142: न्यायिक आदेश की सीमा
अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को “complete justice” देने का अधिकार देता है, लेकिन अनुच्छेद 142 का प्रयोग तभी उचित होता है जब कानून मौन हो या अस्पष्ट हो।
राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्य संविधान द्वारा संरक्षित होते हैं — और यदि संविधान ने कोई समयसीमा नहीं तय की है, तो क्या न्यायपालिका इसे तय कर सकती है?
अनुच्छेद 361: राष्ट्रपति और राज्यपाल की छूट
यह अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल पर उनके कार्यकाल के दौरान कोई भी आपराधिक या दीवानी कार्यवाही नहीं की जा सकती।
लेकिन यह छूट पूर्ण नहीं है — उनके निर्णयों की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) संविधान के ढांचे का हिस्सा है।
अनुच्छेद 200 और 201: विधेयकों पर निर्णय की प्रक्रिया
अनुच्छेद 200 राज्यपाल को चार विकल्प देता है:
- स्वीकृति देना
- अस्वीकृति देना
- पुनर्विचार के लिए लौटाना
- राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना
अनुच्छेद 201 कहता है कि राष्ट्रपति स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते हैं, लेकिन उसमें कोई समयसीमा नहीं है।
न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका – संतुलन या टकराव?
न्यायिक सक्रियता या अतिक्रमण?
सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि लोकतंत्र की आत्मा है जवाबदेही — यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोककर रखते हैं, तो यह विधायिका की अवमानना है।
दूसरी ओर कार्यपालिका मानती है कि संविधान में समयसीमा नहीं दी गई है, तो न्यायपालिका उसे जोड़ नहीं सकती।
संघीय ढांचे पर प्रभाव
भारत का संघीय ढांचा केंद्र और राज्य दोनों की स्वतंत्र सत्ता पर आधारित है।
यदि राज्यपाल राज्य सरकार के विधेयकों को रोकते हैं, और उसपर न्यायिक समयसीमा तय होती है, तो इससे संविधान का शक्ति संतुलन प्रभावित हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
अमेरिका में गवर्नर और राष्ट्रपति पर भी कुछ विधेयकों को तय समय में स्वीकार/अस्वीकार करने की बाध्यता होती है, अन्यथा वे स्वचालित रूप से पास माने जाते हैं।
भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है, लेकिन न्यायिक सक्रियता के माध्यम से इसे अनुकरण करने की कोशिश की जा रही है।
अनुच्छेद 142 संविधान की आत्मा बनाम शब्दशः व्याख्या
भारत का संविधान केवल कानूनों का संकलन नहीं है, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज है। समय-समय पर उसकी व्याख्या न्यायपालिका करती रही है ताकि लोकतंत्र सशक्त रहे।
लेकिन सवाल यह है — क्या न्यायपालिका कार्यपालिका की “मौनता” को भरने के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकती है, या फिर यह कार्य विधानसभा या संसद को करना चाहिए?
अनुच्छेद 142: सुप्रीम कोर्ट की राय का महत्व
राष्ट्रपति द्वारा मांगी गई राय बाध्यकारी नहीं होगी, लेकिन यह आने वाले वर्षों के लिए एक संवैधानिक दिशा तय करेगी:
कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाएं क्या हैं?
क्या संविधान में मौन स्थानों को न्यायालय भर सकता है?
क्या संघीय ढांचा इस प्रकार की न्यायिक व्याख्या से प्रभावित होगा?
ऐतिहासिक संदर्भ और अतीत की मिसालें
1. बंगाल अध्यादेश मामला (1973)
इस मामले में राज्यपाल द्वारा एक अध्यादेश लाकर विधानसभा को दरकिनार करने की कोशिश की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल का पद केवल “रबर स्टैम्प” नहीं है, लेकिन यह भी नहीं कि वह निर्वाचित सरकार के विरुद्ध स्वतंत्र सत्ता चलाएं।
इस फैसले से यह स्पष्ट हुआ कि राज्यपाल को संविधान के मूल ढांचे और निर्वाचित सरकार की नीतियों का सम्मान करना चाहिए।
2. केशवानंद भारती मामला (1973)
यह मामला यद्यपि सीधे तौर पर राष्ट्रपति/राज्यपाल की भूमिका से नहीं जुड़ा था, लेकिन इसमें यह ठोस सिद्धांत स्थापित हुआ कि संविधान का “बेसिक स्ट्रक्चर” बदला नहीं जा सकता, और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) संविधान का अटूट हिस्सा है।
इसका आशय यह है कि राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा लिए गए निर्णयों की भी सीमित न्यायिक समीक्षा हो सकती है।
3. शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी शक्तियां “स्वतंत्र रूप से” नहीं बल्कि मंत्रिपरिषद की सलाह से प्रयोग करते हैं, जब तक कि वे संविधान के अनुच्छेद 163 या 74 के अंतर्गत विशेष विवेकाधिकार के क्षेत्र में न हों।
यह फैसला मौजूदा बहस की नींव रखता है — कि राज्यपाल/राष्ट्रपति “सहयोगी शक्तियां” हैं, न कि “प्रतिबंधकारी”।
क्या न्यायपालिका विधायी रिक्तता को भर सकती है?
यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है — जब संविधान किसी प्रक्रिया के लिए कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं देता, तो क्या न्यायपालिका न्यायिक आदेश से ऐसा कर सकती है?
सिद्धांत: Expressio unius est exclusio alterius
इस विधिक सिद्धांत के अनुसार, यदि कोई चीज़ स्पष्ट रूप से कही गई है और दूसरी नहीं, तो इसका अर्थ यह होता है कि दूसरी को जानबूझकर छोड़ा गया है।
उदाहरण के लिए — यदि अनुच्छेद 111 (राष्ट्रपति को केंद्रीय विधेयकों पर निर्णय) में कोई समयसीमा नहीं है, तो यह माना जाएगा कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर समयसीमा नहीं जोड़ी।

लेकिन क्या “कंप्लीट जस्टिस” इसका अपवाद है?
अनुच्छेद 142 न्यायपालिका को “complete justice” देने का अधिकार देता है, जो सामान्य विधिक सिद्धांतों से ऊपर हो सकता है — विशेषकर जब लोकतंत्र या संविधान की आत्मा संकट में हो।
विधायिका की भूमिका और आवश्यक संशोधन की आवश्यकता
विधानसभा और संसद की चुप्पी
आजादी के 75 वर्षों के बाद भी संसद या राज्य विधानसभाओं ने अनुच्छेद 200 या 201 में समयसीमा जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया है।
यह एक बड़ी खामी है — क्योंकि यदि न्यायिक सक्रियता पर प्रश्न उठ रहे हैं, तो यह कार्य विधायिका के माध्यम से हल किया जाना चाहिए था।
आवश्यक संशोधन प्रस्ताव:
राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय के लिए अधिकतम 30 दिन की सीमा।
यदि राष्ट्रपति को भेजा गया, तो वे 90 दिन में निर्णय दें।
यदि कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा दोबारा लौटाया गया और विधानसभा पुनः पारित करती है, तो उसे बाध्यकारी माना जाए।
क्या यह संविधान के “स्पिरिट” के अनुरूप है?
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट कहा था:
> “राज्यपाल न तो राजा है, न ही प्रतिनिधि। वह केवल राज्य सरकार के प्रमुख के रूप में काम करेगा, जैसा कि राष्ट्रपति केंद्र में करता है।”
निष्कर्ष: राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए इस संवैधानिक संदर्भ (Presidential Reference) का महत्व भारतीय लोकतंत्र और संविधान की कार्यप्रणाली में अत्यंत गहरा है।
यह संदर्भ केवल विधेयकों पर समयसीमा तय करने या अनुच्छेद 142 के प्रयोग की वैधता का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह प्रश्न है कि –
क्या संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति, विशेष रूप से राज्यपाल और राष्ट्रपति, जनादेश से बनी सरकार के निर्णयों को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं?
सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना है कि वह अपनी ‘पूर्ण न्याय की शक्ति’ (अनुच्छेद 142) का प्रयोग कर राज्यपालों और राष्ट्रपति के आचरण को नियंत्रित कर सकती है या नहीं। इस प्रक्रिया में कुछ मूलभूत प्रश्न उठते हैं:
- क्या न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है?
- क्या संवैधानिक पदाधिकारियों के विवेक पर समयसीमा थोपना संविधान के ढांचे के अनुकूल होगा?
- क्या संविधान की आत्मा – ‘लोकतंत्र’ और ‘उत्तरदायित्व’ – तभी सुरक्षित रह सकती है जब सभी अंग समय पर कार्य करें?
इस पूरे विमर्श का सार यही है कि भारतीय लोकतंत्र में कोई भी संस्था या पद संविधान से ऊपर नहीं है।
यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को अनिश्चित समय तक रोकना लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है, तो न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करने का नैतिक और संवैधानिक दायित्व बनता है कि सत्ता का संतुलन बना रहे।
यह मामला संविधान की व्याख्या से कहीं अधिक एक लोकतांत्रिक नैतिकता का सवाल बन चुका है — जिसमें जवाबदेही, पारदर्शिता और जनहित सर्वोपरि हैं।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न केवल तत्कालीन मुद्दे को स्पष्ट करेगा, बल्कि भविष्य की संवैधानिक राजनीति के लिए एक दिशा-निर्देशक सिद्धांत बनकर उभरेगा।
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