न्यूज़ीलैंड में सोशल मीडिया बैन: 16 साल से कम उम्र के बच्चों को लेकर सरकार का चौंकाने वाला फैसला!
प्रस्ताव की पृष्ठभूमि: बदलते समय में बच्चों की सुरक्षा का सवाल
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Toggleआज का युग डिजिटल कनेक्टिविटी का है। बच्चे अब किताबों से ज़्यादा मोबाइल फोन के स्क्रीन से सीखते हैं। सोशल मीडिया, जो कभी केवल वयस्कों का मनोरंजन या संवाद का माध्यम था, अब बच्चों की दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है – क्या सोशल मीडिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है?
न्यूज़ीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन ने इसी चिंता को केंद्र में रखते हुए एक बड़ा कदम उठाया है – 16 साल से कम उम्र के बच्चों पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव।

इस प्रस्ताव की मुख्य विशेषताएं क्या हैं?
1. उम्र सीमा का निर्धारण: इस प्रस्ताव के तहत 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक, स्नैपचैट और अन्य प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से दूर रखने की योजना है।
2. आधिकारिक सत्यापन का नियम: सभी सोशल मीडिया कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे प्रत्येक यूज़र की उम्र का सटीक सत्यापन करें। अगर वे इसमें विफल होते हैं, तो उन पर भारी जुर्माना लगाया जाएगा।
3. कानूनी दंड: सोशल मीडिया कंपनियों को NZ$2 मिलियन तक के दंड का सामना करना पड़ सकता है यदि वे किशोरों को बिना सत्यापन के सेवा प्रदान करते हैं।
4. सरकारी निगरानी प्रणाली का गठन: इस प्रस्ताव के अनुसार एक विशेष सरकारी निगरानी प्राधिकरण बनाया जाएगा जो प्लेटफॉर्म्स की निगरानी करेगा।
क्यों लाया गया यह प्रस्ताव?
प्रधानमंत्री लक्सन ने अपने भाषण में बेहद भावनात्मक तरीके से कहा,
“यह राजनीति नहीं है, यह हमारे बच्चों की सुरक्षा की बात है।”
इस प्रस्ताव के पीछे जो सबसे बड़ी चिंता है वह है:
साइबर बुलीइंग में वृद्धि
युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति
अश्लील एवं हिंसात्मक सामग्री की आसान उपलब्धता
ऑनलाइन ग्रूमिंग और शोषण
सोशल मीडिया की लत और मानसिक असंतुलन
बच्चों पर सोशल मीडिया का असर: शोध और आंकड़े
1. नींद में गिरावट – WHO और UNICEF के अनुसार, 13-15 साल की उम्र के 65% बच्चों की नींद सोशल मीडिया की वजह से प्रभावित हो रही है।
2. मानसिक स्वास्थ्य – सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रयोग से अवसाद, अकेलापन और आत्मसम्मान में कमी देखी गई है।
3. ऑनलाइन शोषण – एक रिपोर्ट के अनुसार, हर 5 में से 1 किशोर को कभी न कभी ऑनलाइन बदतमीजी, धमकी या उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
4. शारीरिक गतिविधियों में गिरावट – सोशल मीडिया की लत के चलते खेलकूद और बाहर की गतिविधियों में रुचि घटती जा रही है।
समर्थन में उठती आवाजें
अभिभावक समुदाय का समर्थन: माता-पिता लंबे समय से यह महसूस कर रहे थे कि सोशल मीडिया बच्चों को जल्दी वयस्क बना रहा है और उन्हें खतरनाक जानकारी तक पहुंचा रहा है।
शिक्षकों का समर्थन: कई स्कूलों के प्रिंसिपलों और शिक्षकों ने कहा है कि वे कक्षा में बच्चों के ध्यान भटकाव और भावनात्मक अस्थिरता को लेकर चिंतित हैं।
मनोवैज्ञानिकों का समर्थन: कई बाल-मनोचिकित्सकों ने सोशल मीडिया को बच्चों की चिंता और अवसाद का मुख्य कारण माना है।
आलोचनाएं और विरोध के स्वर
हालांकि इस प्रस्ताव को व्यापक समर्थन मिल रहा है, लेकिन इसके विरोध में भी कुछ महत्वपूर्ण तर्क हैं:
1. स्वतंत्रता पर नियंत्रण: कुछ लोगों का कहना है कि यह बच्चों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश है।
2. हाशिए पर मौजूद बच्चों के लिए डिजिटल माध्यम का महत्त्व: LGBTQ+ समुदाय के कुछ युवाओं और उनके प्रतिनिधियों ने कहा कि सोशल मीडिया उनके लिए एकमात्र संवाद और समर्थन का माध्यम है।
3. तकनीकी चुनौतियां: बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों की उम्र की सटीक पहचान करना तकनीकी रूप से बेहद मुश्किल है।
4. छुपकर इस्तेमाल की संभावना: प्रतिबंध से अधिक संभावना है कि बच्चे फर्जी अकाउंट बनाकर या माता-पिता की आईडी का इस्तेमाल करके प्लेटफॉर्म्स तक पहुंचें।
ऑस्ट्रेलिया से प्रेरणा: वहां क्या हुआ?
न्यूज़ीलैंड का यह प्रस्ताव ऑस्ट्रेलिया के उसी क़दम के बाद आया है जहाँ नवंबर 2024 में यह कानून पास हो चुका है। वहाँ पर:
16 साल से कम बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखा गया है।
फर्जी अकाउंट पर रोक के लिए अत्याधुनिक पहचान प्रणाली लागू की गई है।
कंपनियों को A$50 मिलियन तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
इस मॉडल ने न्यूजीलैंड सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या यह उनके देश में भी संभव है?
समाधान क्या हो सकते हैं?
अगर हम आलोचनाओं को नजरअंदाज नहीं करते, तो हमें कुछ वैकल्पिक रणनीतियाँ भी देखनी होंगी:
- डिजिटल साक्षरता को शिक्षा प्रणाली में शामिल करना
- सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा खुद अपने प्लेटफॉर्म्स को अधिक सुरक्षित बनाना
- पैरेंटल कंट्रोल ऐप्स का प्रचार
- मनोवैज्ञानिक परामर्श सेवाओं की पहुंच को आसान बनाना
टेक्नोलॉजी कंपनियों की ज़िम्मेदारी और प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया कंपनियों पर यह आरोप वर्षों से लगता रहा है कि वे बच्चों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रहीं। न्यूज़ीलैंड सरकार के इस प्रस्ताव के बाद प्रमुख कंपनियों की प्रतिक्रिया भी सामने आई:
1. Meta (Facebook और Instagram)
Meta का कहना है कि वे पहले से ही 13 साल से कम उम्र के यूज़र्स को प्लेटफॉर्म पर अनुमति नहीं देते।
उन्होंने यह भी कहा कि वे AI और अन्य तकनीकों से उम्र पहचानने की कोशिश कर रहे हैं।
परन्तु आलोचक मानते हैं कि यह केवल “बयानबाज़ी” है क्योंकि अब भी लाखों किशोर इन प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर रहे हैं।
2. TikTok
TikTok ने अपने बयान में कहा कि वे ‘Youth Protection Panel’ बनाकर पहले से बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे हैं।
हालाँकि कई रिपोर्ट्स यह दर्शाती हैं कि TikTok पर अब भी अवांछित कंटेंट बच्चों तक आसानी से पहुंच रहा है।
3. Snapchat
Snapchat की नीति भी कहती है कि 13 साल से कम बच्चों को अनुमति नहीं है, लेकिन असलियत में कोई ठोस उम्र सत्यापन प्रणाली नहीं है।
इससे साफ है कि टेक कंपनियों पर सरकार की ओर से सख्ती आवश्यक हो गई है।
समाजशास्त्रीय पहलू: किशोरावस्था में डिजिटल दुनिया का प्रभाव
किशोरावस्था एक संवेदनशील समय होता है जिसमें भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। अगर इस समय बच्चों को असीमित सोशल मीडिया का उपयोग करने दिया जाए तो उसका असर कई रूपों में सामने आता है:
1. स्व-छवि और आत्म-सम्मान पर प्रभाव
Instagram जैसी ऐप्स जहां “लुक्स” और “लाइफस्टाइल” को दिखाना आम बात है, वहां किशोर अपने आपको दूसरों से कमतर महसूस करने लगते हैं।
2. डोपामिन की लत
सोशल मीडिया पर मिलने वाली हर “लाइक”, “कमेंट” और “नोटिफिकेशन” डोपामिन रिलीज़ करती है – जिससे एक डिजिटल लत लग जाती है।
कानूनी और नीति-निर्माण में संभावनाएं
न्यूज़ीलैंड का यह प्रस्ताव भविष्य के लिए एक उदाहरण बन सकता है। लेकिन केवल कानून बनाना ही काफी नहीं है – उसे लागू करना भी उतना ही जरूरी है।
लागू करने के लिए आवश्यक कदम:
1. सख्त डिजिटल पहचान प्रणाली – हर उपयोगकर्ता को वैध दस्तावेज़ से पहचानना अनिवार्य हो।
2. ऑनलाइन शिक्षा अभियान – बच्चों, माता-पिता और शिक्षकों के लिए डिजिटल साक्षरता अभियान।
3. जवाबदेही बढ़ाना – सोशल मीडिया कंपनियों को हर महीने रिपोर्ट देने को बाध्य करना।
4. इंटरनेशनल सहयोग – इस मुद्दे पर वैश्विक स्तर पर नीतियों में सामंजस्य बनाना।
मीडिया और जन प्रतिक्रिया
न्यूज़ीलैंड का यह प्रस्ताव सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बन गया है।
CNN, BBC, और Al Jazeera जैसी मीडिया एजेंसियों ने इस विषय को कवर किया और इसे “bold and necessary step” कहा।
ट्विटर और रेडिट पर हजारों लोग इस नीति का समर्थन कर रहे हैं, तो कुछ लोग इसे “parental responsibility की अनदेखी” बता रहे हैं।
बच्चों की आवाज़ – उन्हें क्या चाहिए?
कुछ संगठनों ने 13-17 वर्ष के किशोरों से इस विषय पर राय ली। अधिकतर बच्चों ने कहा:
वे पूरी तरह प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हैं।
उन्हें गाइडेंस चाहिए, न कि बैन।
उनका कहना है कि सोशल मीडिया पर वे दोस्त बनाते हैं, पढ़ाई की चीजें खोजते हैं और रचनात्मकता व्यक्त करते हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि एक संतुलित नीति की ज़रूरत है – जो ना तो पूरी तरह प्रतिबंध हो, और ना ही पूरी आज़ादी।
भारत और अन्य देशों में क्या हो सकता है?
न्यूज़ीलैंड की इस नीति से भारत जैसे देशों को भी सीख लेनी चाहिए। भारत में:
करोड़ों बच्चे बिना किसी उम्र सत्यापन के सोशल मीडिया पर हैं।
कई मामलों में साइबर अपराधियों ने बच्चों को निशाना बनाया है।
डिजिटल शिक्षा के बावजूद बच्चों को सुरक्षित इंटरनेट उपयोग की जानकारी नहीं है।
अगर भारत भी ऐसी नीति पर विचार करता है तो उसे:
- अभिभावकों की भूमिका को मज़बूत करना होगा।
- कंपनियों को स्थानीय भाषाओं में सुरक्षा निर्देश देना होगा।
- साइबर सुरक्षा हेल्पलाइन को स्कूल स्तर पर पहुँचाना होगा।
भविष्य की दिशा: सोशल मीडिया और बच्चों के लिए संभावित बदलाव
न्यूज़ीलैंड की पहल से यह स्पष्ट हो गया है कि अब सरकारें सोशल मीडिया की शक्ति को केवल “संपर्क का माध्यम” मानने की भूल नहीं करेंगी। यह समय है जब भविष्य के लिए दूरदर्शी रणनीति बनाई जानी चाहिए:
1. AI आधारित उम्र पहचान प्रणाली
भविष्य में सोशल मीडिया कंपनियाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के ज़रिए उपयोगकर्ता की उम्र का अनुमान लगाने में सक्षम होंगी – जैसे चेहरा पहचानने वाले एल्गोरिद्म या डिजिटल गतिविधियों का विश्लेषण।
2. पैरेंटल कंट्रोल को कानूनी रूप देना
माता-पिता को केवल “सेटिंग्स” में कंट्रोल देने की बजाय, ऐसे विकल्प बनाए जा सकते हैं जो किसी भी खाते को किशोर द्वारा खोलने से पहले पैरेंटल ओके के बिना सक्रिय ही न हों।
3. “Youth-Friendly” सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म
भविष्य में ऐसे नए प्लेटफॉर्म विकसित हो सकते हैं जो विशेष रूप से 10-16 वर्ष के बच्चों के लिए डिज़ाइन किए गए हों – जहाँ कंटेंट, बातचीत और टाइम लिमिट को अच्छी तरह नियंत्रित किया जाए।
वैश्विक दृष्टिकोण: अन्य देशों का रुख
न्यूज़ीलैंड इस दिशा में पहला देश नहीं है – लेकिन उसने एक बेहद साहसिक कदम जरूर उठाया है। आइए कुछ अन्य देशों की स्थिति भी जान लें:
1. संयुक्त राज्य अमेरिका (USA)
अमेरिका में भी कई राज्य बच्चों के लिए सोशल मीडिया उपयोग पर सख्त कानून लाने की दिशा में बढ़ रहे हैं, खासकर जब से फेसबुक पेपर्स और इंस्टाग्राम लीक के ज़रिए कई चौंकाने वाले खुलासे हुए।
2. फ्रांस
फ्रांस ने 2023 में एक नया कानून पास किया था जिसमें 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग तभी संभव है जब माता-पिता अनुमति दें।
3. ऑस्ट्रेलिया
ऑस्ट्रेलिया में साइबर सेफ्टी कमिश्नर की ओर से कंपनियों को आदेश दिए गए हैं कि वे “harmful content” को 24 घंटे के अंदर हटाएं – बच्चों के हित को ध्यान में रखते हुए।
4. भारत
भारत में अभी कोई विशेष कानून केवल सोशल मीडिया पर बच्चों के लिए नहीं है, लेकिन Information Technology Rules, 2021 में कुछ दिशा-निर्देश शामिल किए गए हैं।
भारत में भविष्य में नीति बनाने के लिए न्यूज़ीलैंड की पहल एक मॉडल बन सकती है।

समाज और शिक्षा में अपेक्षित बदलाव
यह कानून केवल एक “डिजिटल” मुद्दा नहीं है – यह शिक्षा, अभिभावकों की भूमिका और सामाजिक जिम्मेदारी से भी जुड़ा है।
1. स्कूलों में डिजिटल नैतिकता की शिक्षा
अब यह ज़रूरी हो गया है कि स्कूलों में 6वीं से ही Cyber Ethics पढ़ाई जाए, जिसमें बच्चों को सोशल मीडिया के फायदे और नुकसान दोनों की जानकारी दी जाए।
2. अभिभावकों की डिजिटल जागरूकता
कई माता-पिता स्वयं सोशल मीडिया की दुनिया से अनजान हैं, जिससे बच्चे उनका लाभ उठाते हैं। सरकार को ऐसे पैरेंटिंग वर्कशॉप चलानी चाहिए।
3. समाज में ‘डिजिटल अनुशासन’ की चर्चा शुरू हो
जैसे हम हेल्थ या फाइनेंस में अनुशासन की बात करते हैं, उसी तरह सोशल मीडिया उपयोग में भी अनुशासन एक मूल्य बनना चाहिए – विशेषकर बच्चों के लिए।
वैकल्पिक सुझाव: बैन से बेहतर उपाय?
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सोशल मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध की बजाय निम्नलिखित उपाय अधिक व्यावहारिक होंगे:
Time Limits (समय सीमा) – एक दिन में 30 या 60 मिनट से अधिक उपयोग न हो।
Content Filters (कंटेंट फ़िल्टरिंग) – किसी भी प्रकार का हिंसक, अश्लील या भ्रामक कंटेंट स्वतः ब्लॉक हो।
Mandatory Digital Literacy Badges – किशोर तभी अकाउंट बना सकें जब उन्होंने एक ‘डिजिटल सुरक्षा’ का छोटा सा कोर्स पूरा किया हो।
निष्कर्ष:
न्यूज़ीलैंड का प्रस्ताव बच्चों को सोशल मीडिया से पूरी तरह से दूर रखने का एक साहसिक कदम है, जो समाज और सरकारों द्वारा सोशल मीडिया पर बच्चों की सुरक्षा को लेकर की गई चिंताओं का स्पष्ट संकेत है।
यह नीति न केवल एक कानूनी कदम है, बल्कि यह बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की रक्षा के लिए आवश्यक भी बन गई है।
जैसा कि डिजिटल दुनिया तेजी से विस्तार कर रही है, सोशल मीडिया ने बच्चों के लिए न केवल अवसर, बल्कि खतरे भी उत्पन्न किए हैं, जो कि आत्म-छवि, साइबर बुलिंग, मानसिक स्वास्थ्य, और अवांछित यौन शोषण जैसे गंभीर मुद्दों के रूप में सामने आते हैं।
हालांकि, इस तरह के कदमों से पहले यह महत्वपूर्ण है कि सरकारें और सोशल मीडिया कंपनियां एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं। बच्चों को सोशल मीडिया से पूरी तरह अलग रखना जरूरी नहीं है.
लेकिन उन्हें सुरक्षित, नियंत्रित और संरक्षित डिजिटल वातावरण में भेजना निश्चित रूप से ज़रूरी है। इसके लिए माता-पिता की भूमिका, स्कूलों में डिजिटल शिक्षा और सोशल मीडिया कंपनियों की ज़िम्मेदारी भी अहम होनी चाहिए।
समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से भी, बच्चों को केवल बैन करने से अधिक जरूरी यह है कि उन्हें सही दिशा दिखाने वाले उपाय दिए जाएं। जैसे कि समय सीमा, कंटेंट फ़िल्टरिंग और डिजिटल सुरक्षा शिक्षा – जिससे वे सोशल मीडिया का उपयोग स्मार्ट और सुरक्षित तरीके से कर सकें।
अंततः, यह कदम केवल एक सरकार या एक देश का प्रयास नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक संकेत है कि डिजिटल दुनिया में बच्चों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
यह हमारे सामूहिक प्रयासों का हिस्सा होना चाहिए, ताकि बच्चों को एक सुरक्षित, सकारात्मक और सशक्त डिजिटल भविष्य प्रदान किया जा सके।
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